जब फैशन केवल दिखावे की चीज़ नहीं थी, बल्कि पहचान, सुविधा और शान का प्रतीक हुआ करता था—तब जोधपुर ने दुनिया को एक नई परिभाषा दी। यह कहानी है एक ऐसे परिधान की, जिसने घोड़े की पीठ से उठकर यूरोप के महलों तक सफर तय किया। जोधपुरी ब्रिचीज़—जिनमें नाप से ज़्यादा नज़ाकत थी, और हर सिलाई में इतिहास की कोई न कोई कहानी छुपी थी।
सोचिए, जब घोड़े की पीठ पर महाराजा सर प्रताप सवार होते, तो उनके कपड़े नहीं, उनकी शान दौड़ती थी। जोधपुरी ब्रिचीज़—यह कोई साधारण पोशाक नहीं, बल्कि रजवाड़ों की रुह से बुना गया वह वस्त्र है, जिसने जोधपुर के नाम को सिलाई की सीवनों से अंतरराष्ट्रीय नक्शे पर टांक दिया।
पोलो के मैदान से शुरू हुआ यह सिलसिला, यूरोप की पगडंडियों तक पहुंच गया। सन 1948 में जब महाराजा सर प्रताप ने ब्रिटिश सेना की घुटनों तक की भारी पतलून को कैंची की एक नपी-तुली चाल से काटा, तो उसमें नाप भर का नहीं, इतिहास का आकार दिया गया। घुटनों के नीचे तक सटी हुई, बिना किसी डोरी या बटन वाली यह पोशाक न केवल घुड़सवारी के लिए अनुकूल थी, बल्कि एक अनकही बगावत की निशानी भी बन गई—एक भारतीय नवाचार, जो ब्रिटिश ठाठ को भी मात दे गया।
यह ऐतिहासिक विवरण हमें इतिहासकार जगदीश सिंह गहलोत द्वारा लिखित पुस्तक “मारवाड़ राज्य का इतिहास” से प्राप्त होता है, जिसमें स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि जोधपुरी ब्रिचीज़ का यह डिज़ाइन और प्रचलन महाराजा सर प्रताप की पहल और नवाचार का परिणाम था।
राजपूताना के महलों से लेकर लंदन के लॉन्ज तक, जब भी कोई जोधपुरी ब्रिचीज़ पहनता है, वह सिर्फ कपड़े नहीं, एक परंपरा ओढ़ता है—माटी की गंध, घोड़े की टाप, और महाराजाओं का आत्मविश्वास। जोधपुर ने कपड़े को पहनावे से पहचान में बदल दिया। और ‘ब्रिचीज़’ बन गईं उस संस्कृति की आवाज़, जो हर कदम पर कहती है—”मैं जोधपुर हूं!”