बात- बेलगाम (व्यंग)

बयानों के बवंडर में संयम

राजनीति में कुछ लोग विचारधारा की मशाल लेकर चलते हैं, तो कुछ लोग बयानबाजी की तलवार। संयम लोढ़ा दूसरी श्रेणी में आते हैं— उनकी जुबान जब चलती है, तो विरोधी ढाल उठाने से पहले ही घायल हो जाते हैं। सिरोही की सियासत में उनका कद किसी पुराने किले की तरह रहा है— कभी सत्ता के प्रहरी, तो कभी बगावत की मीनार। लेकिन दिलचस्प यह है कि वे कभी भी भाजपा के खेमे में नहीं रहे, बल्कि हमेशा उसके खिलाफ मोर्चा संभालते रहे। संयम लोढ़ा की राजनीति को समझना आसान नहीं है। वे कभी कांग्रेस के साए में दिखते हैं, तो कभी निर्दलीय योद्धा की तरह सत्ता के दरबार में अपनी जगह बना लेते हैं। वर्ष 2018 में निर्दलीय चुनाव जीतकर वे अशोक गहलोत के दरबार में खास सलाहकार बने और सत्ता के गलियारों में उनकी गूंज सुनाई देने लगी। लेकिन राजनीति में निष्ठा से ज्यादा नतीजे मायने रखते हैं, और वर्ष 2023 के चुनावी संग्राम में जनता ने उनका सियासी सिंहासन हिला दिया। संयम लोढ़ा के बयान किसी धारदार तलवार से कम नहीं होते। वे जब जुबान खोलते हैं, तो सामने वाले के लिए संभलना कुछ मुश्किल हो जाता है। भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष सीपी जोशी को जवाब देते हुए उन्होंने कहा— “बछड़ा अब सांड बन चुका है,” और मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा की नियुक्ति पर तंज कसते हुए इसे “राखी सावंत को दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड देने जैसा” बता दिया। उनके शब्दों की धार इतनी पैनी होती है कि कई बार अपने ही समर्थकों पर वार कर बैठते हैं। खेतलाजी मंदिर में ‘मोदी-मोदी’ के नारों से तिलमिलाकर खुद को “सिरोही का मोदी” बता दिया और गुस्से में भीड़ को “डफोलो” (मूर्ख) कह बैठे। संयम लोढ़ा की राजनीति किसी कसीदाकारी की तरह महीन नहीं, बल्कि एक धारदार तलवार की तरह है— सीधी, पैनी और कभी-कभी बेलगाम। उनकी राजनीति में विचारधारा से ज्यादा आक्रामकता और बयानबाजी का तड़का देखने को मिलता है। अब देखना यह है कि यह तलवार आगे भी धार बनाए रखेगी या समय के साथ म्यान में चली जाएगी।

https://rajasthantoday.online/april-2025

जोधपुर में आसाराम की वापसी

जोधपुर की गलियों में एक बार फिर से एक पुरानी परछाईं लौट आई है। आसाराम की वापसी ठीक वैसी ही है जैसे कोई धुंधला पड़ा चित्र अचानक से दीवार पर फिर से उभर आए। कभी प्रवचनों से शहर को गुंजाने वाला यह नाम अब अदालतों की बहस और फैसलों की परिधि में बंध चुका है। लेकिन सवाल यह है— क्या यह वापसी किसी पुराने संत की घर वापसी है या एक बीते युग की प्रतिध्वनि, जिसे जोधपुर ने पीछे छोड़ दिया था? कभी अनुयायियों की भीड़ से घिरी जोधपुर की सड़कें अब बस कानून के पहरेदारों और जिज्ञासु निगाहों की गवाह बन रही हैं। शहर की हवा में वैसी श्रद्धा नहीं, बल्कि कानाफूसी और तंज के सुर घुले हैं। आसाराम की मौजूदगी एक बार फिर से बहसों को गर्म कर रही है— क्या समय सच में आगे बढ़ गया है, या कुछ छाया इतनी गहरी होती हैं कि वे समय के साथ भी धुंधली नहीं होतीं? जो भी हो, जोधपुर एक बार फिर एक कहानी को दोबारा जी रहा है। फर्क सिर्फ इतना है कि इस बार श्रद्धा के स्थान पर प्रश्न अधिक हैं।

टीका-टिप्पणी में जूली

राजस्थान की राजनीति में बयानबाजी की सरिता कभी मंद नहीं पड़ती, लेकिन जब नेता विपक्ष टीकाराम जूली बोले, तो जैसे शब्दों की ‘टीका’ से टिप्पणी का नया संस्कार हो गया। अब तक विधानसभा में बजट, विकास, और नीतियों पर चर्चा होती थी, लेकिन इस बार माधुरी दीक्षित के करियर ग्राफ पर विचार-विमर्श हो गया। जूली साहब ने जोश में आकर ‘सेकंड ग्रेड’ की परिभाषा दे डाली, मानो विधानसभा नहीं, कोई फिल्म समीक्षक का मंच हो। शाहरुख को ‘फर्स्ट ग्रेड’ बताकर शायद सोचा होगा कि बॉलीवुड उनके बयान पर मोहर लगा देगा। लेकिन जनाब! माधुरी दीक्षित तो आज भी लाखों दिलों की धड़कन हैं, उनकी मुस्कान पर आज भी सिनेमा के पर्दे खिल उठते हैं। अब ज़रा सोचिए, अगर यही तर्क राजनीति पर लगा दिया जाए? ‘फर्स्ट ग्रेड’ और ‘सेकंड ग्रेड’ का फॉर्मूला राजनीतिक हस्तियों पर फिट कर दिया जाए, तो बहुत से लोग पर्दे के पीछे खड़े नज़र आएंगे। आखिर, राजनीति भी तो एक बड़ा थिएटर ही है – कोई हिट, कोई फ्लॉप, और कुछ रीमेक में भी फिट हो जाते हैं। ख़ैर, जूली जी का ये बयान इस बात का प्रमाण है कि हमारी राजनीति में मसाला फिल्मों का तड़का अब भी ज़िंदा है। मुद्दे चाहे कुछ भी हों, लेकिन चर्चाओं का कैमरा ज़रूर घुमा दिया जाता है। और इस बार, कैमरे का फ़ोकस किसी बजटीय आंकड़े या विकास योजनाओं पर नहीं, बल्कि माधुरी दीक्षित के स्टारडम पर था। राजनीति और सिनेमा में फर्क सिर्फ इतना ही रह गया है कि एक में पर्दे पर हीरोइन बदलती है, और दूसरे में चुनाव के साथ चेहरे। लेकिन दर्शक हमेशा वही रहते हैं – कभी ताली बजाते, कभी सिर पकड़ते!


चिकित्सा विश्वविद्यालय में ‘येवले’ प्रभाव!

राजस्थान स्वास्थ्य विज्ञान विश्वविद्यालय (RUHS) में नए कुलपति की नियुक्ति किसी मेडिकल केस स्टडी से कम दिलचस्प नहीं रही। एक दिन पहले तक कुलपति पद का भविष्य धुंध में था, लेकिन फिर अचानक, राज्यपाल हरिभाऊ बागड़े के हस्ताक्षर से एक नाम बाहर आया—प्रो. प्रमोद येवले! बिल्कुल वैसे ही जैसे किसी अप्रत्याशित जांच रिपोर्ट से डॉक्टर खुद चौंक जाएं, चिकित्सा जगत में भी यह नाम कई लोगों के लिए अनायास ही सामने आ गया। चिकित्सा नीति के ‘ऑपरेशन थिएटर’ में जहां कई नामों की ‘सर्जरी’ चल रही थी, वहां येवले साहब की एंट्री बिना किसी पूर्वाभास के हुई— जैसे बिना लक्षणों वाला कोई मेडिकल सरप्राइज़! अब सवाल उठता है कि क्या येवले साहब इस विश्वविद्यालय को नई ‘डोज़’ देंगे या फिर वही पुरानी नीतियों की ‘प्रिस्क्रिप्शन’ जारी रहेगी? चिकित्सा शिक्षा के मर्ज़ के लिए कौन-सी ‘थेरेपी’ काम करेगी? फिलहाल, कुलपति की नई नियुक्ति ने मेडिकल गलियारों में हलचल जरूर बढ़ा दी है। आने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि येवले साहब शिक्षा के इस ‘आईसीयू’ में नई जान फूंकेंगे या फिर नीतियों के ‘वेंटिलेटर’ पर पुरानी व्यवस्था ही चलती रहेगी

Advertisement

spot_img

कब्र में ही रहने दें दफ़न

यह भी साबित हुआ कि आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से हम आगे भले ही बढ़ रहे हैं, लेकिन मानसिक स्तर पर कुछ मान्यताओं और धारणाओं को हम आज भी छोड़ नहीं पा रहे हैं।

राजस्थान विधानसभा: गरिमा और जवाबदेही पर उठते सवाल

लोकतंत्र के इस मंदिर में जिस गरिमा और गंभीरता की अपेक्षा की जाती है, वह बार-बार तार-तार होती नजर आई।

झूठ- कोई ऐसा दल नहीं, जिसने इसका सहारा लिया नहीं

कुछ अपवादों को छोड़ दें तो कोई भी दल और कोई भी नेता ऐसा नहीं है, जिसने सत्ता हासिल करने के लिए या अपने विरोधियों को नीचा दिखाने के लिए झूठ का सहारा ना लिया हो।

राजनीति का अपराधीकरण, कौन लगाए रोक?

राधा रमण,वरिष्ठ पत्रकार वैसे तो देश की राजनीति में 1957 के चुनाव में ही बूथ कैप्चरिंग की पहली वारदात बिहार के मुंगेर जिले (अब बेगुसराय...

AI- नियमित हो, निरंकुश नहीं

एक दिलचस्प दावा यह भी है कि यह मॉडल सभी भारतीय भाषाओं में उपलब्ध होगा। वहीं सरकार ने एआइ के इकोसिस्टम को मजबूत करने के लिए 10,372 करोड़ रुपए का बजट भी मंजूर कर दिया है।

शनि ग्रह का राशि परिवर्तन

ऐसा नहीं है कि बाकी राशियां शनि के इस स्थान परिवर्तन के प्रभाव से अछूती रह जाएंगी। सभी राशियों पर कुछ अनुकूल और प्रतिकूल प्रभाव पढ़ने सुनिश्चित हैं।

ट्रम्प का डॉलर डिवेल्यूएशन का डर्टी प्लान!

एक तरफ अपना एक्सपोर्ट को बढ़ाने के लिए उत्पाद आधारित नौकरियां पैदा करने का बोझ ट्रम्प पर है, दूसरी ओर वे ये भी नहीं चाहते हैं कि ब्रिक्स देश डॉलर के अलावा अन्य भुगतान के विकल्प पर सोचें।

बाबर को हरा चुके थे राणा सांगा

राज्यसभा में समाजवादी पार्टी के सांसद रामजीलाल सुमन के भाषण में राणा सांगा को बाबर की मदद करने के कारण ‘गद्दार’ कहे जाने से देश भर में बवाल मचा हुआ है, लेकिन ऐतिहासिक तथ्य कुछ और ही कहानी कहते हैं। इनके मुताबिक राणा सांगा ने बाबर की मदद तो कभी नहीं की, बल्कि उन्होंने फरवरी 1527 ई. में खानवा के युद्ध से पूर्व बयाना के युद्ध में मुगल आक्रान्ता बाबर की सेना को परास्त कर बयाना का किला जीता था।

मानवीय संवेदनाओं का चितेरा- सत्यजित रे

यह मुख़्तसर सा बायोडाटा दुनिया के मानचित्र पर भारतीय फिल्मों को स्थापित करने वाले उस फ़िल्मकार का है, जिसे करीब से जानने वाले ‘माणिक दा’ के नाम से और दुनिया सत्यजित रे (राय) के नाम से पहचानती है।

काश, फिर खिल जाए बसंत

पूरी दुनिया जहां हर 22 अप्रैल को विश्व पृथ्वी दिवस मनाती है और 23 अप्रैल को विश्व पुस्तक दिवस। भारत के लिए भी यह महीना काफी महत्वपूर्ण है, खासकर कला, संस्कृति और तीज त्योहारों के कारण।

शब्द भाव का खोल है, कविता निःशब्दता की यात्रा

विचार किसी के प्रति चिंता, प्रेम, आकर्षण, लगाव, दुराव, नफरत का संबंध रखता है। वह चाहे कोई मनुष्य हो, समाज हो,  देश हो, जाति- धर्म हो या भाषा। किंतु भाव किसी से संबंधित नहीं होता।

बाबा रे बाबा

सरकार के साथ हैं या उनके विरोध में। कब, कैसे, कहां और किस बात पर वे सरकार से नाराज हो जाएं, इसका अंदाजा कोई नहीं लगा सकता। माटी और आंदोलन के बूते राजस्थान की सियासत के जमीनी नेता माने जाने वाले किरोड़ी लंबे समय से मंत्री पद से इस्तीफा देकर भी बतौर मंत्री काम कर रहे हैं।

स्ट्रेटेजिक टाइम आउट! और गेम चेंज

ड्रीम-11 की तरह माय-11 सर्कल, मायटीम-11, बल्लेबाजी जैसी कई ऐप्स ने स्पोर्ट्स फैंटेसी के मार्केट में कदम रख दिया। सभी ऐप्स तेजी से ग्रो भी कर रहे हैं। ये करोड़ों तक जीतने का लुभावना ऑफर देकर लोगों को इसमें पैसे लगाने के लिए प्रेरित करते हैं। और इनका प्रमोशन करते हैं आईपीएल के स्टार क्रिकेटर्स।

किंकर्तव्यविमूढ़ कांग्रेस

कांग्रेस के लिए मुफीद रहे राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य भी उसके हाथ से निकल गए और हार का असर यह हुआ कि इन प्रदेशों में भी कांग्रेस अब तक 'कोमा' से निकल नहीं पा रही।

वह विश्व विजय

दादा ध्यानचंद के सपूत बेटे के इस गोल ने देश को दिलाया पहला विश्व कप। इसके 8 साल बाद वर्ष 1983 में कपिल देव की टीम ने भारत को दिलाया था क्रिकेट का विश्व कप।

इटली का बेटा, राजस्थान की माटी का अपना – लुइजि पिओ तैस्सितोरी

वर्ष 1914 में, तैस्सितोरी बीकानेर पहुंचे। एक विदेशी, जो उस भाषा के प्रेम में खिंचा आया था, जिसे तब भारत में भी उचित मान्यता नहीं मिली थी। बीकानेर की हवाओं में जैसे कोई पुरानी पहचान थी, यहां की धूल में शायद कोई पुराना रिश्ता।

बोल हरि बोल

अपन भी आज बिना चिंतन के बैठे हैं। अपनी मर्जी से नहीं, जब लिखने कहा गया तो ऐसे ही मूर्खता करने बैठ गए! कहा गया कि आजकल जो चल रहा है, उस पर एक नजर मारिए और अपनी तीरे नजर से लिख डालिए। जिसको समझ आया वो व्यंग्य मान लेगा, वरना मूर्खता में तो आपका फोटू सुरिंदर शर्मा से मीलों आगे ही है।

कोटा, एक जिद्दी शहर

अनुभव से सीखने की है और विरासत को और आगे ले जाने की है। चम्बल के पानी की तासीर कहें या यहां के लोगों की मेहनत की पराकाष्ठा, इतिहास में देखें तो कोटा ने जब-जब जिद पाली है कुछ करके दिखाया है।

वैश्विक व्यापार और भारत: टैरिफ की नई चुनौतियां

ताजा टैरिफ प्रकरण में ये जानना जरूरी है कि भारत जहां अमेरिकी वस्तुओं पर 9.5 प्रतिशत टैरिफ लगाता है, वहीं भारतीय आयात पर अमेरिकी शुल्क केवल 3 प्रतिशत ही है। ट्रम्प रैसिप्रोकल नीति (जैसे को तैसा) के जरिए सभी देशों से इसी असंतुलन को खत्म करना चाहते हैं।

अबीर-गुलाल का टीका

यह अंक होली की मस्ती में तैयार किया गया है। एआई के दौर में आधुनिकता की दौड़ से प्रतिस्पर्धा कर रही पत्रकारिता का यह अलग स्वरूप आपको लग रहा है।