– दिनेश सिंदल
कवि एवं लेखक
शब्द भाव का खोल है। भाव आत्मा है, शब्द शरीर। शब्द हृदय तक नहीं पहुंचता। वह मस्तिष्क तक ही रहता है। ह्रदय तक भाव पहुंचता है। शब्द की अलग- अलग भंगिमाएं है। उसका अलग- अलग आकार है। अलग- अलग रूप है। जब तक हम शब्द के साथ हैं, तब तक हम अलग- अलग है। भाव का कोई रूप नहीं, भाव का कोई आकार नहीं।
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शब्द के साथ विचार है। विचार किसी से संबंधित होता है। किसी के प्रति पक्षपाती होता है। विचार किसी के प्रति चिंता, प्रेम, आकर्षण, लगाव, दुराव, नफरत का संबंध रखता है। वह चाहे कोई मनुष्य हो, समाज हो, देश हो, जाति- धर्म हो या भाषा। किंतु भाव किसी से संबंधित नहीं होता। वह हमारा स्वभाव है, जो हमारे भीतर से बहता है। जिस तरह फूल खुशबू और चंद्रमा चांदनी बिखेरता है, नदी प्यास बुझती है। ये फूल, चंद्रमा, नदी का अपना स्वभाव है।
बाह्य संस्कारों से निकलते हैं शब्द
चूंकि शब्द हमारे बाह्य संस्कारों से निकलते हैं। अतः वे अलग-अलग होते हैं। इसलिए जब तक हम शब्द के साथ होते हैं तब तक हम अलग-अलग होते हैं। हम हिंदू होते हैं, मुस्लिम होते हैं, जैन होते हैं, सिख होते हैं, पारसी होते हैं। हम वैचारिक स्तर पर जनवादी, प्रगतिवादी, कलावादी, राष्ट्रवादी आदि खेमों में बंटे होते हैं। लेकिन जब हम भाव के स्तर पर आते हैं तो हमारे सभी खोल उतर जाते हैं। हम में कोई भेद नहीं रहता।
जिस तरह शरीर आत्मा का खोल है। शरीर अलग-अलग हैं, लेकिन आत्मा एक है। आत्मा के स्तर पर आकर हम में कोई भेद नहीं रह जाता। सब एक और एक सब हो जाता हैं। जो आत्मा को नहीं मानते वो यूं समझ सकते हैं कि जिस तरह दीपक अलग- अलग हो सकते हैं। कोई मिट्टी का, कोई सोने- चांदी का, कोई पीतल का, कोई लोहे का, किंतु उसके भीतर जलने वाली ज्योति एक होती है। दीपक अलग- अलग है, किंतु ज्योति एक है।
रात भर अंधियारे से लड़ता रहा दहलीज पर
कौन आकर रख गया है इक दिया दहलीज पर
हम गए भीतर तो कोई और ही बैठा मिला
नाम कोई और ही लिख्खा मिला दहलीज पर
कविता या कहूं कि हमारी कलाएं हमें इसी ज्योति का रास्ता दिखाती है। इसी ज्योति की तरफ ले जाती हैं। कविता शब्द में नहीं है। कविता शब्द के पार है। शब्द तो रास्ता है कविता तक पहुंचने का। शब्द साधन है। इसी तरह भाषा साधन है, उपमान- उपमेय साधन है। कविता साध्य है।
जैसे कोई हमें अंगुली के इशारे से चांद दिखाए और कहे- ‘ वो देखो चांद’। यहां अंगुली चांद नहीं है। चांद कही दूर है। अंगुली सिर्फ चांद की तरफ किया गया इशारा है। कविता में शब्द का काम उस अंगुली जितना ही है। कविता चांद है, किंतु कुछ लोग इस अंगुली को ही चांद समझ लेते हैं और इसे ही सजाने संवारने लग जाते हैं।
कविता शब्दों मे नहीं होती, शब्दों के परे होती है। जिस तरह पत्थर मूर्ति नहीं है। पत्थर में से मूर्ति उकेरना पड़ता है। शब्द कविता के लिए उतने ही जरूरी है, जितना मूर्ति के लिए पत्थर। कविता निःशब्दता में है। जहां शब्द चुप हो जाते हैं, कविता वहां से आरंभ होती है। लेकिन इस निःशब्दता को शब्द से ही पाना पड़ता है। इस निःशब्दता की यात्रा शब्द के रास्ते से ही करनी होती है।
जिस तरह इस कमरे के बाहर निकलने के लिए मुझे कुछ कदम (दरवाजे तक) इस कमरे में ही चलना पड़ेगा। निःशब्दता को पाने के लिए भी कुछ देर शब्द के साथ चलना पड़ता है।
यही से मुश्किल पैदा होती है। क्योंकि दुनिया नीयत को नहीं देख पाती, वह नतीजे को देखती है, परिणाम को देखती है। इसलिए हमारी सारी कोशिशें परिणाम के लिए होती हैं, नीयत के लिए नहीं। अतः हम कविता से चूक जाते हैं। हम परिणाम पाने की कोशिश में लगे रहते हैं। परिणाम जैसे पुरस्कार पाना, किताब छपवाना, सम्मान पाना, जैसे सरकारी प्रतिष्ठानों, अकादमियों के पद पाना इत्यादि। ये सब चीजें हमें विचार से आगे नहीं जाने देती। शब्द के भीतर नहीं उतरने देती। क्योंकि शब्दों में आपकी नीयत दिखती है। आप किसके पक्ष में हैं, किसके विपक्ष में हैं, किसके साथ, हैं, किसके विरोध में हैं, यह स्पष्ट दिखाई देता है। भाव के अंदर आपकी नीयत स्पष्ट नहीं दिखती। कविता के लिए आपको स्वयं के व्यक्तित्व का विसर्जन करना पड़ता है।
मेरे लिए विचार कविता जैसा कोई शब्द नहीं है। मेरा मानना है कि जहां विचार है, वहां कविता बहुत दूर है, क्योंकि विचार बुद्धि की चीज है। विचार को तर्क से काटा जा सकता है। कविता भाव जगत की चीज है और भाव को आप अनुभूत कर सकते हैं, महसूस कर सकते है। कविता बुद्धि का नहीं, हृदय का विषय है। बुद्धि तर्क करती है। किसी व्यक्ति को तर्क से (बुद्धि से) रूपांतरित नहीं किया जा सकता। तर्क से वह हारा हुआ अनुभव करेगा, बदला हुआ नहीं। रूपांतरण भाव की छलांग है।
देखता हूं आज फिर बचकर सुरक्षित रह गया
जल गई सब पुस्तकें अक्षर सुरक्षित रह गया
जिस्म तो गिरना ही था मुरझा के उसका शाम तक
फूल ने खुशबू लुटाई औ’ सुरक्षित रह गया