भारत को भूगोलीय भाषा में उत्तरी गोलार्ध का हिस्सा माना जाता है और अप्रैल का महीना इस गोलार्ध पर बसंत ऋतु की शुरुआत का महीना माना गया है। हम फाल्गुनी रंगों से निकल कर गर्मियों के दिनों की ओर बढ़ रहे हैं।
बसंत की शुरुआत के साथ नए पेड़-पौधों के खिलने के इस मौसम में पहले कभी सुहावने मौसम के साथ परिक्षाएं खत्म होती थी, लेकिन जलवायु परिवर्तन के चलते अब बसंत और सुहावना मौसम बेमानी सी लगता है। फिर भी अप्रैल का महीना देश और दुनिया के लिए खास रहता है। अप्रैल फूल यानी मूर्खता दिवस से शुरुआत के साथ यह महीना दुनिया भर में कई वैश्विक उत्सवों और जागरुकता दिवसों के लिए मशहूर है। पूरी दुनिया जहां हर 22 अप्रैल को विश्व पृथ्वी दिवस मनाती है और 23 अप्रैल को विश्व पुस्तक दिवस। भारत के लिए भी यह महीना काफी महत्वपूर्ण है, खासकर कला, संस्कृति और तीज त्योहारों के कारण।
इसी अप्रैल में जहां भारतीय नवसंवत्सर के साथ नया साल शुरू होता है। गणगौर, चैत्री नवरात्रि, रामनवमी, हनुमान जयंती, महावीर जयंती जैसे कई उत्सव इस महीने को बासंती बना देते हैं। खुशियों के फूल खिलते हैं, उल्सास के रंग फिजां में बिखरते हैं। वहीं मुस्लिम समाज के लिए इस बार अप्रैल में पवित्र रमजान महीने की विदाई के साथ ईद की खुशियां बरस रही हैं। ईसाई समुदाय के लिए गुड फ्राइडे व ईस्टर की वजह से यह महीना खास है।
आपके लिए भी अप्रैल का यह अंक खास रहेगा, इस उम्मीद के साथ इस बार हमने कई मामलों की इनडेप्थ स्टडीज के साथ हर वर्ग की रूचि के अनुरूप सामग्री प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इस बार एक प्रमुख विश्लेषण देश की ग्रांड ओल्ड पार्टी कांग्रेस की दशा और दिशा पर फोकस कर लिखा गया है। कांग्रेस ने देश पर एक छत्र राज किया, लेकिन जिस उत्तर भारत की वजह से वह सिरमौर बनी रही, वहां आज उसे अंगुलियों पर गिना जा सकता है। लगभग एक दशक से ज्यादा वक्त हो गया, कांग्रेस एक के बाद एक राज्यों को खोती जा रही है। मात्र दक्षिण भारत के दो-तीन राज्यों को छोड़ दें तो कांग्रेस कहीं बची ही नहीं। कभी कांग्रेस के गढ़ रहे उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान व मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में कांग्रेस की हालत पहचाने न जा सकने वाले खण्डहर की तरह दिखती है। चुनाव दर चुनाव हार के बावजूद कांग्रेस उबर ही नहीं पा रही। उसका हर प्रयोग उल्टा पड़ रहा है। विरोधी तो यहां तक कह देते हैं कि कांग्रेस के पास न नीति है और न ही नीयत। हालांकि पिछले साल हुए आम चुनाव के बाद कांग्रेस के दिन फिरने की उम्मीद जगी थी, लेकिन विधानसभा चुनावों में हार ने जैसे कांग्रेस को झकझोर दिया। अब हालांकि कांग्रेस जिला स्तर पर तैयारी कर ‘बैक टू द रूट्स’ की तैयारी कर रही है, लेकिन जिस तरह पार्टी नेतृत्व पर गांधी-नेहरू परिवार की छाप है और निचले स्तर पर चल रही खींचतान और गुटबाजी अनियंत्रित हो रही है, उसे देखकर सवाल उठाया जा सकता है कि पार्टी नया नेतृत्व कैसे तैयार करेगी।
यूं देखा जाए तो समय काफी बदल गया है। राजनीति पर धनबल-बाहूबल हावी होने लगे हैं। जाहिर है राजनीति में अपराधीकरण भी बढ़ा है। हर पार्टी पर इसके दाग लगे हैं। यहां तक कि सत्ताधारी भाजपा भी इससे अछूती नहीं रही। कांग्रेस पर तो पहले ही इसे लेकर आरोप लगते रहे हैं। क्षेत्रीय दल भी इस मामले में कहां पीछे रहे। इसे लेकर हमारी खास रिपोर्ट कहती है कि राजनीति भी अब जिसकी लाठी उसकी भैंस जैसी हो गई है। हालत यह है कि कोई भी इस पर अंकुश लगाने को तैयार नहीं है। सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका के जवाब में सरकार कहती है कि दागदार छवि के लोगों के चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध की मांग तो संविधान को नए सिरे से लिखने जैसी है। इसी तरह के जवाबों से कई बार प्रतीत होता है कि सरकारें खुद नहीं चाहती कि ऐसे कोई प्रभावी कदम उठाए जाएं कि अपराधी राजनीति में न आ सके। दुनिया के दूसरे बड़े लोकतंत्र के रूप में हमें इस मुद्दे पर गम्भीरता से विचार करना होगा।
हमनें गढ़े मुर्दे उखाड़ने की हौड़ के बीच ताजा पैदा हुए मुगल आतताई औरंगजेब की कब्र उखाड़ने के मुद्दे पर मचे बवाल के भीतर भी झांकने की कोशिश की है। दरअसल, फिल्मी दुनिया में कमाई के आंकड़ों से धमाका करने वाली फिल्म ‘छावा’ से यह मुद्दा ऐसा गर्माया कि नागपुर जैसे शहरों में दंगे तक हो गए। औरंगजेब और मराठों के बीच संघर्ष भारत के इतिहास का वह हिस्सा है, जिसने देश में हिन्दु राष्ट्रवाद के विचार को पनपाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन ताजा विवाद को देखकर तो यही कहा जा सकता है कि आर्थिक व सामाजिक रूप से हम कितने ही आगे बढ़ गए, लेकिन मानसिक स्तर पर कुछ मान्यताओं और धारणाओं को आज भी छोड़ नहीं पा रहे हैं। ये ऐसे मुद्दे हैं जो आमआदमी की भावनाओं से जुड़े हैं, लेकिन क्या हमें किसी की बातों में आकर आपसी सद्भाव भुलाकर इन जज्बातों को हावी हो देना चाहिए।
दुनिया की बात करें तो अमरीका के राष्ट्रपति ट्रम्प ने सुर्खियां लूट रखी है। कभी टैरिफ वार तो कभी अवैध प्रवासियों के निष्कासन को लेकर। भारत भी इनसे अछूता नहीं रहा। कहीं न कहीं हमारे ऊपर भी इसका अच्छा-बुरा असर दिख ही रहा है। सवाल उठ रहे हैं कि हम चुपचाप सहन करते रहेंगे या कोई प्रतिक्रिया देंगे, लेकिन आज दुनिया के सामने भारत की जो साख बन रही है, उसे देखते हुए मोदी सरकार की वैट एंड वॉच की नीति को सराहा जाना चाहिए। साथ ही इसने हमें स्वदेशी को बढ़ावे का जो मौका दिया है, उस पर भी गम्भीरता से साथ ही साथ घरेलू मोर्चे पर भी काम हो तो काफी असर हो सकता है।
देश-दुनिया की राजनीति व हलचल के साथ हम कोशिश कर रहे हैं आपको विविधतापूर्ण सामग्री परोसने की। चाहे राजस्थान के लिए खास रहे तैस्सितौरी से रूबरू कराने की कहानी हो या फिर अप्रैल के महीने में ग्रह-गोचर का नए कलेवर में प्रस्तुतिकरण। उम्मीद है, आपको अंक पसंद आएगा। अपनी प्रतिक्रियाओं से जरूरत अवगत करवाइएगा।
शुभकामनाओं के साथ
दिनेश रामावत,
प्रधान सम्पादक