– सुधांशु टाक
लेखक, समीक्षक
साल था 1955. भारतीय सिनेमा अभी मानव मूल्यों और यथार्थवाद को समझने का प्रयास कर रहा था। तभी सिनेमा के परदे पर रिलीज हुई “पथेर पांचाली” ने विश्व सिनेमा में भारी उथल पुथल मचा दी। इस फिल्म को तक़रीबन एक दर्जन अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाज़ा गया। इस फिल्म को बनाने वाले व्यक्तित्व को ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी ने ‘डॉक्टरेट’ की मानद उपाधि से सम्मानित किया। यह सम्मान चार्ली चैप्लिन के बाद अकेले उन्हें ही मिला था, जो सिनेमा से जुड़े थे। महान जापानी फ़िल्मकार अकीरा कुरोसावा यहां तक कह बैठे- “इस शख्स की फिल्मों को देखे बिना रहना, चांद और सूरज को देखे बिना रहना है।” इसके बाद कान्स, वेनिस, बर्लिन और ऑस्कर सरीखे दुनिया के प्रतिष्ठित फिल्म पुरस्कारों से सम्मानित होने वाले वे अकेले भारतीय फ़िल्मकार बने। अपने पूरे कॅरियर में बनाई गई कुल तीन दर्जन फिल्मों के लिए उन्हें 32 बार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिले। ‘भारत रत्न’ पाने वाले वे अब तक के एकमात्र फिल्म निर्देशक बने। यह मुख़्तसर सा बायोडाटा दुनिया के मानचित्र पर भारतीय फिल्मों को स्थापित करने वाले उस फ़िल्मकार का है, जिसे करीब से जानने वाले ‘माणिक दा’ के नाम से और दुनिया सत्यजित रे (राय) के नाम से पहचानती है।
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रियल लाइट में फिल्मांकन
अपनी नई सिने-दृष्टि के साथ सत्यजित रे ने तत्कालीन फिल्म निर्माण के तौर तरीके के विपरीत गैर-पेशेवर अदाकारों और टेक्निशियन्स के साथ आउटडोर लोकेशन पर रियल लाइट में फिल्मांकन किया था। सत्यजित रे इस मायने में भी अलग थे जिनकी फिल्मों का कलेवर ‘ललित कलाओं के कोलाज’ सरीखा होता था। शायद यही वजह है कि मशहूर अमरीकी फ़िल्म निर्देशक मार्टिन स्कॉर्सेसी ने कहा भी है –“रे की फिल्मों में काव्य और सिनेमा को मिलाने वाली रेखा एक दूसरे में घुलीमिली सी नज़र आती है।”
एक संवेदनशील फिल्म दर्शक
दिलचस्प बात यह है कि ‘पथेर पांचाली’ बनाने से पहले रे के पास न तो फिल्म-निर्माण का कोई अनुभव था और न ही यथार्थवादी फिल्मों का कोई बेहतर भारतीय प्रतिमान सामने था। लेकिन ‘बंगाल रेनेसां’ से प्रभावित पारिवारिक पृष्ठभूमि, शांति निकेतन में रहते हुए विकसित हुई कला-दृष्टि, अपने साथियों के साथ बनाए गए फिल्म क्लब में विश्व-सिनेमा से परिचित होने के मौकों ने उन्हें संवेदनशील फिल्म दर्शक ज़रूर बना दिया था।
बचपन से ललित कला में रुचि
सत्यजीत रे का जन्म 2 मई 1921 को पश्चिम बंगाल के कोलकाता में हुआ। वे उनके माता – पिता की इकलौती संतान थे। वे सिर्फ 3 साल के थे जब उनके पिता सुकुमार रे का निधन हो गया। इस घटना के बाद उनकी माता सुप्रभा रे ने उनका बड़ी मुश्किल से पालन पोषण किया था। उनकी माता रवींद्र संगीत की मंजी हुई गायिका थी। उनके दादा ‘उपेन्द्रकिशोर रे’ एक लेखक एवं चित्रकार थे और इनके पिता भी बांग्ला में बच्चों के लिए रोचक कविताएं लिखते थे। स्कूली शिक्षा ख़त्म होने के बाद उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज से अर्थशास्त्र की पढ़ाई की। फिर आगे की पढ़ाई के लिए शांति निकेतन गए, लेकिन इनकी रुचि हमेशा से ही ललित कलाओं में रही। शांति निकेतन में रे पूर्वी कलाओं से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने प्रसिद्ध चित्रकार नंदलाल बोस और बिनोद बिहारी मुखर्जी से कला के पाठ लिए। अगले पांच साल शांति निकेतन में रहने के बाद वे 1943 में फिर कलकत्ता आ गए और बतौर ग्राफिक डिजाइनर का काम करने लगे। इनके पद का नाम “लघु द्रष्टा” था और महीने का केवल अस्सी रुपए वेतन था। जिम कॉर्बेट की ‘मैन ईटर्स ऑफ कुमाऊं’ और जवाहरलाल नेहरू की ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ के आवरण भी सत्यजीत रे ने ही डिजाइन किए थे। राय ने दो नए फॉन्ट भी बनाए “राय रोमन” और “राय बिज़ार”। राय रोमन को 1970 में एक अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में पुरस्कार मिला।
ड्रेस तक की डिजायन में माहिर
सत्यजित एक हरफ़नमौला कलाकार थे, जिन्हें फ़िल्म के हर डिपार्टमेंट में महारत हासिल थी। डायरेक्शन के साथ- साथ फ़िल्म की पटकथा, संपादन और फ़िल्म के पोस्टरों से लेकर एक्टरों की ड्रेस तक की डिजायन वे खु़द करते थे। यहां तक के अपने करियर की आख़िरी फ़िल्मों में उन्होंने ही संगीत दिया था। यही नहीं मर्चेंट आइवरी की फ़िल्म ‘शेक्सपीयर वाला’ और बंगाली फ़िल्म ‘बाक्स बदल’ में भी सत्यजित रे का ही म्यूजिक है। यह बतलाना भी लाज़िमी होगा कि रबीन्द्रनाथ टैगोर के निधन के बाद सत्यजित रे ने उन पर एक बेहतरीन डॉक्युमेंट्री ‘रबीन्द्रनाथ’ भी बनाई थी। जिसमें उन्होंने गुरुदेव टैगोर की ज़िंदगी के अहम वाक़यात को फिल्माया। इस डॉक्युमेंट्री की पटकथा, नरेशन और निर्देशन सत्यजित रे का ही है। ‘रबीन्द्रनाथ’ डॉक्युमेंट्री के अलावा सत्यजित रे ने कुछ दीगर अहम हस्तियों चित्रकार विनोद बिहारी मुखोपाध्याय, सुकुमार रे और भरत नाट्यम की नृत्यांगना बालसरस्वती पर भी वृतचित्र बनाए। उन्होंने कुछ कहानियां लिखीं। सत्यजित रे मानवीय संवेदनाओं के चितेरे फ़िल्मकार थे। जिन्होंने सेल्युलाइड पर अपनी फ़िल्मों से कई बार करिश्मा किया। अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था ‘‘एक फ़िल्मकार के तौर पर मेरा मुख्य काम ऐसी कहानी की तलाश करना है, जिसमें मानव-व्यवहार और उसके बीच के रिश्तों के सच्ची पड़ताल हो। यह पड़ताल बनी-बनाई ढ़र्रे वाली न हो, न ही नकली स्टीरियोटाइप! बल्कि उस पड़ताल में मानवीय संवेदना हों, जो तकनीकी संसाधनों के साथ उस कहानी को चाक्षुष यानी देखने लायक बनाती हो।’
एक जीनियस फ़िल्मकार
फ़िल्मों में बेशुमार कामयाबी के बाद भी सत्यजित रे हमेशा अपनी जड़ों से जुड़े रहे। उन्हें न तो बॉलीवुड ने लुभाया और न ही उनकी चाहत कभी हॉलीवुड जाने की हुई। जबकि सत्यजित रे को हॉलीवुड की कई फ़िल्मों के ऑफ़र मिले थे। वे कलकत्ता में ही ख़ुश थे। उन्हें वहीं दिली सुकून मिलता था। एक इंटरव्यू में उन्होंने खु़द यह बात कबूली थी, ‘‘मैं जब विदेश में होता हूं, बहुत रचनात्मक महसूस नहीं करता हूं। मुझे इसके लिए कलकत्ता में अपनी कुर्सी ही चाहिए।’’ फ़िल्मी दुनिया में सत्यजित रे के अविस्मरणीय योगदान के लिए उन्हें अनेक सम्मान और पुरस्कारों से नवाज़ा गया। भारत सरकार ने उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया, तो वहीं सत्यजित रे की फ़िल्मों को 32 नेशनल अवार्ड मिले। जिनमें 6 बार उन्हें सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। फ्रांस का ‘लीजन ऑफ ऑनर अवार्ड’, ‘रेमन मैग्सेसे अवार्ड’, ‘स्टार ऑफ़ यूगोस्लाविया’ जैसे अहम पुरस्कार भी मिले। 90 के दशक की शुरुआत में उनकी सेहत ने साथ देना छोड़ दिया था और उनका चलना-फिरना भी सीमित हो गया था। 23 अप्रैल 1992 को उनका निधन हो गया। सत्यजीत रे की मौत वाले दिन जैसा दिन कोलकाता ने पहले कभी नहीं देखा था। पूरा कोलकाता उस दिन गमगीन था। अगले दिन झुलसाती गर्मी की परवाह किए बिना हजारों लोग उनके पार्थिव शरीर के साथ आगे बढ़ रहे थे। सत्यजीत रे के जाने से भारतीय सिनेमा के एक सुनहरे युग का अंत हो गया। रे हमेशा याद आएंगे….
एकमात्र हिंदी फीचर फिल्म
सत्यजीत रे ने कुल 36 फिल्में बनाई। उन्हें 32 नेशनल फिल्म अवॉर्ड मिले। सत्यजीत रे की ‘शतरंज के खिलाड़ी’ हिंदी भाषा की इकलौती फीचर फिल्म थी। इस फिल्म की कहानी अवध के आखिरी मुगल वाजिद अली शाह और उनके शासन काल के ऊपर थी।
ऑस्कर अवॉर्ड घर चलकर आया
ऑस्कर अवॉर्ड की चाहत दुनिया भर के फिल्मों से जुड़े व्यक्तित्वों की होती है। 1992 की शुरुआत में ऑस्कर कमेटी द्वारा उन्हें ऑनरेरी अवॉर्ड फॉर लाइफटाइम अचीवमेंट देने की घोषणा की गई थी, लेकिन उस दौरान वे बहुत बीमार थे। ऐसे में ऑस्कर के पदाधिकारियों ने फैसला लिया था कि ये अवॉर्ड उनके पास पहुंचाया जाएगा। ऑस्कर के पदाधिकारियों की टीम कोलकाता में सत्यजीत रे के घर पहुंची और उन्हें अवॉर्ड से सम्मानित किया गया। इसके करीब एक महीने के भीतर ही उनका निधन हो गया था।
जयाप्रदा की सुंदरता के मुरीद थे
महान फिल्मकार सत्यजीत रे अभिनेत्री जयाप्रदा के सौंदर्य और अभिनय से अत्यधिक प्रभावित थे। उन्होंने जयप्रदा को विश्व की सुंदरतम महिलाओं में एक माना था। वे उन्हें सिनेमा का सबसे हसीन चेहरा मानते थे। सत्यजीत रे उन्हें लेकर एक बांग्ला फिल्म बनाने के लिए इच्छुक थे, लेकिन स्वास्थ्य खराब रहने के कारण उनकी योजना अधूरी रह गई।