कब्र में ही रहने दें दफ़न

मनीष गोधा,
वरिष्ठ पत्रकार

मुगलों, विशेषकर औरंगजेब और मराठों के बीच का संघर्ष भारत के इतिहास का वो हिस्सा है जिसने हमारे देश में हिन्दू राष्ट्रवाद के विचार को पनपाने और आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई है। यह विचार और इसके परिणाम कितने सही और गलत हैं, इसे लेकर लम्बी बहस की जा सकती है। बल्कि देखा जाए तो यह बहस चल भी रही है,  लेकिन महाराष्ट्र के नागपुर में औरंगजेब की कब्र को लेकर जिस तरह का विवाद चल रहा है, उसने यह साबित कर दिया कि औरंगजेब के प्रति नफरत मराठाओं में आज भी कम नहीं हुई है। यह भी साबित हुआ कि आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से हम आगे भले ही बढ़ रहे हैं, लेकिन मानसिक स्तर पर कुछ मान्यताओं और धारणाओं को हम आज भी छोड़ नहीं पा रहे हैं।

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औरंगजेब की बरसी यानी तीन मार्च को महाराष्ट्र में समाजवादी पार्टी के विधायक अबू आजमी  हाल में प्रदर्शित हुई फिल्म छावा को मिली सफलता और प्रशंसा के बीच औरंगजेब की तारीफ ने अब तक दफ़न पड़े औरंगजेब के मुद्दे को फिर से जिंदा कर दिया। हालात तो ये हो गए कि उसके बाद इस मकबरे को हटा कर यहां शौचालय बनाने जैसे बयान आ गए। औरंगजेब के मकबरे को हटाने की मांग को लेकर 17 मार्च को नागपुर में एक प्रदर्शन चल रहा था, जो ना जाने कब साम्प्रदायिक हिंसा में बदल गया और देखते ही देखते घरों पर पथराव और गाड़ियों में आगजनी हो गई। करीब 33 पुलिसकर्मी और कुछ आम लोग घायल हुए। घटना के बाद पुलिस ने शहर के कई इलाकों में कफ्र्यू लगा दिया। दिलचस्प बात यह है कि औरंगजेब का मकबरा नागपुर में है ही नहीं। यह औरंगाबाद से करीब 24 किलोमीटर दूर एक गुमनाम जगह खुल्दाबाद में है। अब आप देखिए कि दिल्ली का सुल्तान औरंगजेब और उसका मकबरा दिल्ली में ना हो कर उसी महाराष्ट्र में जहां शायद उससे सबसे ज्यादा नफरत की जाती रही है और यह नफरत महाराष्ट्र की राजनीति को प्रभावित भी करती रही है।

आज का विवाद है ही नहीं

बहरहाल, मौजूदा विवाद पर आते हैं, जो देखा जाए तो आज का विवाद है ही नहीं। यह महाराष्ट्र की राजनीति का पुराना मुद्दा है। औरंगजेब के इस मकबरे को हटाने की मांग शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे भी उठाते रहे हैं और बताते हैं कि इसे लेकर अस्सी के दशक में महाराष्ट्र के अलग-अलग हिस्सों में हिंसा भी होती रही है। मौजूदा विवाद उस पुराने मुद्दे का विस्तार भर है जो माना जा रहा है कि फिल्म छावा के कारण एक बार फिर चर्चा में आ गया और देश में मुगलिया शासन की याद दिलाने वाले प्रतीकों को बदलने, हटाने आदि को लेकर जिस तरह का माहौल बना हुआ है, उसे देखते हुए लगता नही है कि यह मुद्दा जल्दी शांत होगा। हालांकि राष्ट्रीय राजनीति या महाराष्ट्र के राजनीतिक परिदृश्य को देखें तो ध्रुवीकरण को बढ़ाने वाले इस या ऐसे मुद्दों से किसी को कोई बड़ा फायदा होने की उम्मीद भी नहीं है, क्योंकि दोनों ही जगह एक ही दल की स्थिर सरकारें हैं।

सिनेमा का इतना असर….

इस पूरे मुद्दे का एक और पहलू है जो सिनेमा से जुड़ा है। किसी फिल्म का इस तरह किसी मुद्दे को जिंदा कर देना या कहें कि भावनाओं को उद्वेलित कर देना यह बताता है कि सिनेमा को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। ओेनियन मेकिंग यानी मत निर्माण के अन्य साधनों की तरह सिनेमा भी एक ओपिनियन मेकर है और पूर्व में सिनेमा यह काम अलग- अलग समय पर करता भी रहा है। लेकिन, चूंकि इस माध्यम की पहुंच और प्रभावशीलता काफी है और आज जिस दौर में हम रह रहे हैं, उस दौर में छोटी सी चूक की भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। उम्मीद की जानी चाहिए कि विषयों के चुनाव में सिनेमा से जुड़े लोग इस जिम्मेदारी को समझेंगे। लेकिन अब आते हैं मूल सवाल पर- क्या सच में औरंगजेब का मकबरा या ऐसे ही अन्य विषय आज के दौर में हमारे लिए कोई मुद्दा होना चाहिए? इस सवाल का जवाब अलग-अलग दृष्टिकोण और परिप्रेक्ष्य में हां भी हो सकता है और ना भी। हम दोनों पक्ष आपके सामने रखने का प्रयास करेंगे और चूंकि हर व्यक्ति अपनी अलग सोच रखता है, इसलिए इस सवाल का जवाब भी आप अपनी सोच के हिसाब से तय करने के लिए स्वतंत्र हैं।

पहले हां की बात करते हैं

हां, औरंगजेब की कब्र ही नहीं, बल्कि ऐसे वो तमाम मुद्दे आज भी जरूरी हैं जो उस दौर का सही इतिहास हमारे सामने लाते हैं। इसमें कोई दोराय नहीं है कि इतिहास के नाम पर हमें जो कुछ पढ़ाया जाता रहा है, उस पर एक खास किस्म की सोच हावी रही है और इसीलिए हमारे सामने लाया गया इतिहास पूरी तरह निष्पक्ष या विचारधारामुक्त नहीं कहा जा सकता है। वर्षो तक इतिहास को लेकर दूसरा दृष्टिकोण हमारे सामने आ ही नहीं पाया, क्योंकि सत्ता प्रतिष्ठानों पर उस खास विचारधारा के पोषक बैठे थे। अब सत्ता परिवर्तन के बाद बहुत कुछ वो भी सामने आ रहा है जो इतिहास में कहीं ना कहीं दर्ज तो था, लेकिन उसे सामने लाया नहीं गया, लेकिन जो हमें जानना चाहिए था। ऐसे में औरंगजेब की कब्र जैसे मुद्दों के बहाने ही सही, यदि इतिहास को लेकर दबी-छुपी जानकारियां सामने आती हैं और एक नई दृष्टि का निर्माण होता है तो होना चाहिए। अब इसे लेकर कोई यह आरोप लगाए कि इतिहास के पुनर्लेखन का प्रयास किया जा रहा है, इसे अपने हिसाब से तोड़ा- मरोड़ा जा रहा है तो उसे आरोप लगाने के बजाए अपने तथ्य सामने रखने चाहिए। सही और गलत का फैसला अपने आप हो जाएगा।

अब बात ना की

वहीं इसी सवाल को दूसरे परिप्रेक्ष्य में देखें तो इस मुद्दे या इसी तरह के अन्य मुद्दों को लेकर जिस तरह का माहौल बनता है और भावनाएं उद्वेलित होती है तो यह भी लगता है कि आखिर क्यों ना इतिहास से उतना ही लिया जाए, जितना हमें आज जरूरत है या जो आज हमारे लिए प्रासंगिक है। हम एक प्रगतिशील अर्थव्यवस्था और समाज के रूप में विकसित हो रहे हैं और ऐसे दौर में औरंगजेब की कट्टरपंथी सोच हमारे लिए कैसे प्रासंगिक हो सकती है? वो अपनी सोच के साथ दुनिया से विदा हो गया और अब शांति से अपनी कब्र में आराम कर रहा है। हम क्यों उसे और उसकी सोच को उस कब्र से निकाल रहे है? वो जहां है उसे वहीं पड़े रहने दीजिए। समय के साथ बहुत कुछ मिट जाता है। हमारे देश के 90 प्रतिशत लोग नहीं जानते है कि औरंगजेब का मकबरा खुल्दाबाद में है, क्योंकि जरूरत ही नहीं है। यह मकबरा कब समय की धूल का हिस्सा बन जाता हमें पता भी नहीं चलता। इसलिए क्यों ना समय को अपना काम करने दिया जाए और धूल डालो जी बात पर, कहते हुए आगे बढ़ा जाए।

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