धरोहर
बलवंत मेहता
वरिष्ठ पत्रकार
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मीरा̐बाई:
- भक्तिकाल की अद्वितीय
काव्य साधिका - कृष्ण भक्ति की प्रतीक और अनछुए ऐतिहासिक तथ्य
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मीरा̐बाई, भारतीय भक्ति साहित्य की अमर विभूति, इतिहास, भक्ति और समाज के अनेक अनछुए पहलुओं की प्रतीक हैं। राजपरिवार में जन्मी इस कवियत्री के जीवन को लेकर इतिहासकारों और विद्वानों के बीच कई मतभेद हैं। जन्मस्थान, नाम की व्युत्पत्ति और भक्ति परंपरा जैसे विषयों पर आज भी गहन शोध की आवश्यकता है। प्रोफेसर कल्याण सिंह शेखावत द्वारा किए गए शोध और उनकी वार्ता के आधार पर प्रस्तुत यह आलेख मीरा̐बाई के जीवन के अनछुए पहलुओं को उजागर करने का प्रयास करता है।
जन्म और परिवार का विवाद
मीरा̐बाई का जन्म विक्रम संवत 1555 में वैशाख सुद तीज को मूल नक्षत्र में बाजोली गाँव (वर्तमान नागौर, राजस्थान) में हुआ था। उनके पिता राव रतन सिंह मेड़ता के चौथे पुत्र थे। यह गाँव, कुड़की और बाजोली सहित 12 गाँवों की जागीर का हिस्सा था। जन्म के समय उनकी माता का देहांत हो गया, जिसे उनके मूल नक्षत्र से जोड़ा गया। उनके दादा राव दूधाजी, मेड़ता रियासत के संस्थापक, चारभुजा नाथ जी के परम भक्त थे, जिन्होंने मीरा̐बाई को भी कृष्ण भक्ति की शिक्षा दी।
मीरा̐बाई का नाम: इतिहास की उलझन
कुछ विद्वानों के अनुसार, मीरा̐बाई का नाम ‘मीरा̐’ अरबी-फारसी भाषा से लिया गया है, जबकि अन्य इसे ‘मिहिर’ (सूर्य) से जोड़ते हैं। लोकधारणाओं के अनुसार, उनका नाम मूल नक्षत्र में जन्म के कारण पड़ा। मीरा̐बाई का जीवन और नाम, दोनों ही हिंदू भक्ति परंपरा और वैष्णव धर्म के गहरे प्रभाव को दर्शाते हैं।
विवाह और वैराग्य का प्रारंभ
मीरा̐बाई का विवाह मेवाड़ के भोजराज से हुआ, जो महाराणा सांगा के पुत्र थे। विवाह के आठ वर्षों बाद ही भोजराज का निधन हो गया। इस घटना ने मीरा̐बाई के जीवन को कृष्ण भक्ति की ओर मोड़ दिया। उन्होंने गिरिधर गोपाल को अपना आराध्य और पति माना। इस वैराग्य ने उन्हें राजपरिवार की परंपराओं और समाज की रूढ़ियों से ऊपर उठकर एक नई पहचान दी।
सगुण भक्ति की समर्थक
मीरा̐बाई को अक्सर निर्गुण भक्ति संतों की श्रेणी में रखा जाता है, परंतु उनका जीवन और रचनाएँ सगुण भक्ति की प्रतीक हैं। उनकी उपासना का आधार मूर्ति पूजा, नृत्य, गायन और स्मरण था। उनकी प्रसिद्ध पंक्ति, “मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई,” उनके सगुण भक्ति के विश्वास को प्रमाणित करती है।
विषपान और भक्ति का चमत्कार
मीरा̐बाई की भक्ति को लेकर उनके देवर विक्रमादित्य ने कई बार आपत्ति जताई। उन्होंने पंडितों से विष देकर मीरा̐बाई को समाप्त करने का प्रयास किया। विष को चरणामृत बताकर मीरा̐बाई को दिया गया, परंतु उनकी कृष्ण भक्ति से विष का प्रभाव निष्फल हो गया। यह घटना उनकी भक्ति की शक्ति और चमत्कारिक प्रभाव को दर्शाती है।
वृंदावन और द्वारका: जीवन का अंतिम चरण
चित्तौड़ में 17 वर्षों तक रहने के बाद मीरा̐बाई वृंदावन और फिर द्वारका चली गईं। द्वारका में रणछोड़ राय मंदिर में उनकी भक्ति चरम पर थी। कहा जाता है कि उनके परिजनों ने उन्हें वापस लाने का प्रयास किया, लेकिन उन्होंने मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश कर मूर्ति में विलीन हो जाने की बात कही। मीरा̐बाई का स्वर्गवास विक्रम संवत 1604 में हुआ और उनका दाह संस्कार गोमती घाट पर किया गया।
मीरा̐बाई की पदावली: साहित्यिक धरोहर
मीरा̐बाई की पदावली भक्ति साहित्य की अनमोल धरोहर है। “डाकोर” की हस्तलिखित प्रति में 110 पद उपलब्ध हैं, जिनमें राजस्थानी, ब्रज, और हिंदी का मिश्रण है। उनके पदों में सहजता, भक्ति, और कृष्ण प्रेम का अनुपम समावेश है। विद्वानों का मानना है कि इन पदों का पुनः संपादन और शोध आवश्यक है, ताकि यह साहित्यिक धरोहर और अधिक प्रामाणिक बन सके।
मीरा̐बाई की कालजयी प्रेरणा
मीरा̐बाई का जीवन त्याग, भक्ति और साहस का अद्भुत संगम है। उन्होंने सामाजिक बंधनों और राजपरिवार की मर्यादाओं से ऊपर उठकर कृष्ण भक्ति को जीवन का उद्देश्य बनाया। उनकी रचनाएँ आज भी भक्ति साहित्य और भारतीय संस्कृति की पहचान हैं।
विशेष उल्लेख: यह आलेख प्रोफेसर कल्याण सिंह शेखावत से हुई बातचीत और उनके शोध प्रबंध पर आधारित है। मीरा̐बाई के जीवन और साहित्य के अनछुए पहलुओं को उजागर करने में प्रोफेसर शेखावत का योगदान अद्वितीय है। उनके शोध ने मीरा̐बाई की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्ता को नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है।