बलवंत राज मेहता
वरिष्ठ पत्रकार
जिस तरह किसी राजा की पहचान उसका मुकुट होती है,
उसी तरह मरुधर के पुरुषार्थी की शान है—जोधपुरी साफा।
यह केवल सिर पर बांधा जाने वाला वस्त्र नहीं,
बल्कि आत्मसम्मान, परंपरा और शौर्य का प्रतीक है—
एक ऐसी चादर जो सिर से नहीं,
बल्कि संस्कारों से बंधती है।
भूतनाथ मंदिर के प्रांगण में जब साफा बंध रहा था,
तो ऐसा प्रतीत हुआ मानो मरुधरा के पूर्वजों की आत्मा पुनः जीवित हो उठी हो।
साफा प्रशिक्षण शिविर केवल एक आयोजन नहीं था,
बल्कि यह एक संस्कृति पुनर्जागरण का उत्सव था।
जहाँ आज की पीढ़ी सोशल मीडिया के शोर में अपनी जड़ों से कट रही है,
वहीं इस शिविर में सिर पर साफा बांधकर संस्कारों की माला पहनाई जा रही थी।
जस्टिस गोपालकृष्ण व्यास का वहां पहुँचना
इस बात का संकेत था कि संस्कारों को सीखने की कोई उम्र नहीं होती।
जैसे किसी वटवृक्ष की जड़ों से पुनः पानी मिलने पर हरियाली लौट आती है,
वैसे ही व्यासजी ने साफा बांधकर संस्कृति की शाखाओं को संजीवनी दी।
साफा बांधना कोई कठिन विद्या नहीं,
यह तो समर्पण और अभ्यास का सिर पर चढ़ा हुआ गौरव है।
मनोज बोहरा जैसे गुरुओं की टीम
हर सिर को मान देने की कला सिखा रही थी,
मानो हर प्रतिभागी एक नया राजदूत बन रहा हो परंपरा का।
अगर आप चाहते हैं कि अगली पीढ़ी आपको सम्मान दे,
तो पहले उन्हें सम्मान का रंग—जोधपुरी साफा पहनाइए।
क्योंकि जोधपुरी साफा, सिर्फ सजावटी नहीं,
यह तो संस्कृति का ताज है,
जो हर सिर को राज करता है।
अगर कहें कि यह सिर्फ प्रशिक्षण नहीं,
बल्कि संस्कृति के सिर पर फिर से सजाया गया ताज था—तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।