झीलों की नगरी के जल में चांदनी भी उदास हुई
बलवंत राज मेहता
वरिष्ठ पत्रकार
मेवाड़ के इतिहास में 16 मार्च 2025 का दिन जब उदयपुर का आसमान बुझते दीपक की लौ की तरह कांप उठा। झीलों की नगरी के जल में चांदनी भी उदास लग रही थी, हवाएं थम-सी गई थीं, और राजमहल की दीवारें जैसे किसी अनकहे शोकगीत को समेटे खड़ी थीं। महाराणा अरविंद सिंह मेवाड़, जिनकी उपस्थिति मेवाड़ की धड़कन थी, अब मौन हो चुके थे।
सिटी पैलेस का शंभू निवास, जहां कभी उनके कदमों की आहट गूंजती थी, अब सन्नाटे की चादर ओढ़े बैठा था। एकलिंगजी मंदिर की घंटियों की आवाज में एक अलग ही करुण रस घुला था, मानो भगवान स्वयं अपने भक्त के जाने से शोकमग्न थे। जगदीश मंदिर की सीढ़ियां, जहां उन्होंने न जाने कितनी बार इतिहास और संस्कृति के सपने बुने होंगे, आज मानो उन्हें याद कर निस्तब्ध खड़ी थीं।
वे सिर्फ एक नाम नहीं थे, वे मेवाड़ की वह आत्मा थे, जिसने अपने पुरखों की धरोहर को सिर्फ संभाला नहीं, बल्कि उसे नए रंगों में ढालकर युगों तक जीवंत बनाए रखा। उनके जाने से ऐसा लगा, जैसे उदयपुर की झीलों ने अपनी लहरों को रोक लिया हो, जैसे अरावली की चोटियों पर पसरी धूप हल्की पड़ गई हो।
जिस सिटी पैलेस की खिड़कियों से वे कभी झीलों की गहराई निहारा करते थे, वहां आज एक ठहराव था। जिस सिंहासन को उन्होंने अधिकार से नहीं, बल्कि अपने कर्मों से गौरवान्वित किया, वह आज जैसे किसी की प्रतीक्षा में मौन था।
उदयपुर की गलियों में आज कोई चहल-पहल नहीं थी, जैसे नगर ने अपना सबसे प्रिय रक्षक खो दिया हो। गलियां, जहां विदेशी सैलानी उनकी बनाई भव्यता को निहारते थे, आज एक अनजानी उदासी से घिरी थीं। पिछोला झील की सतह पर तैरती नौकाएं थम-सी गई थीं, मानो वे भी अपने संरक्षक को अंतिम विदाई देने ठहर गई हों।
उनका जीवन मेवाड़ की उस दीपशिखा की तरह था, जिसने अपने प्रकाश से अंधेरे को हमेशा दूर रखा। लेकिन अब वह लौ बुझ चुकी थी। फिर भी, उसकी गर्मी, उसकी रोशनी मेवाड़ की हवाओं में सदा महसूस की जाएगी।
महाराणा अरविंद सिंह मेवाड़ चले गए, लेकिन उनकी यादों की परछाइयाँ उदयपुर की हवाओं में हमेशा तैरती रहेंगी। हर जलती हुई दीपमाला, हर गूंजती हुई घंटी, हर गोधूली बेला उन्हें स्मरण करती रहेगी—क्योंकि कुछ सूरज डूबने के बाद भी अपनी आभा छोड़ जाते हैं।