सादगी व अनुशासन की मिसाल तनसिंह

‘‘आंधियां आएं और जो झुके नहीं, तूफान आवें पर जो टूटें नहीं, कांटे चुभे और जो रूके नहीं, आंहें और आंसू जो निकले तो उन्हें पीकर मुस्करा दे, नफरत के प्याले पीकर जो उन्हीं प्यालों में प्रेम का जल भर कर मनुहार करते हों, संसार उन्हीं के अप्रत्याशित व्यवहार को देखने के लिए रूका करता है। सुख और समृद्धि के संदेश लाने वालों को अपने दुख और द्रारिद्रय की कभी शिकायत नहीं करनी चाहिए।’’ पूज्य श्री तनसिंह द्वारा लिखित उक्त पंक्तियां उनके जीवन दर्शन को बखूबी बयां करती है।

राजस्थान टुडे ब्यूरो

बीते पांच वर्षों में श्री क्षत्रिय युवक संघ की ओर से आयोजित तीन कार्यक्रमों की बड़ी चर्चा रही। श्री क्षत्रिय युवक संघ की हीरक जयंती पर जयपुर में आयोजित कार्यक्रम में लाखों लोग शरीक हुए। इस कार्यक्रम का अनुशासन पूरे देश व दुनिया में चर्चा का विषय रहा। वर्ष 2024 में दिल्ली में संघ के संस्थापक पूज्य तन सिंह की 100 वीं जयंती पर कार्यक्रम का आयोजन हुआ। अनुशासन व सद्भावना के मामले में इस कार्यक्रम की भी मिसाल दी गई। इसी तरह 25 जनवरी 2025 को तन सिंह स्मारक का लोकार्पण बाड़मेर में हुआ। इस कार्यक्रम में भी हजारों लोग शामिल हुए। अनुशासन के मामले में यह कार्यक्रम भी मिसाल रहा। महान शख्सियत तन सिंह के देश भर में लाखों अनुयायी है। हाल ही में आयोजित उनकी 101 में जयंती के उपलक्ष में हम उनके व्यक्तित्व से आपको रूबरू करवा रहे हैं

पूज्य श्री तनसिंह – जीवन परिचय
तनसिंह का जन्म उनके ननिहाल बैरसियाला गांव (जैसलमेर) में माघ कृष्णा चतुर्थी संवत् 1924 में हुआ। 4 वर्ष की अल्पायु में पिता का साया सिर से उठ गया। माता मोतीकंवर ने विपरीत परिस्थितियों के बावजूद प्राथमिक शिक्षा पूरी करवाई। इसके पश्चात 1942 में चौपासनी स्कूल जोधपुर में प्रवेश लिया। कठिन परिश्रम से चौपासनी के सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी बने। हाईस्कूल पास करने के लिए पिलानी पहुंचे। विषम परिस्थतियों के चलते तनसिंह ने स्वयं के हाथो से बर्तन साफ करना, सब्जियां उगाकर बेचना, बबूल के दातुन सहपाठियों को पहुंचाने का कार्य करने के साथ अध्ययन जारी रखा।

पिलानी से स्नातक शिक्षा में बाद 1949 में नागपुर से एलएलबी उत्तीर्ण की। इस साल बाड़मेर में वकालत का कार्य शुरू किया। इसी साल हुए नगरपालिका अध्यक्ष के चुनाव में तनसिंह निर्वाचित हुए। यहीं से उनके राजनीतिक जीवन की शुरूआत हुई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगाने के विरोध में हुए आंदोलन में शरीक हुए। इस दौरान वे जेल भी गए। चौपासनी स्कूल अधिग्रहण के विरूद्ध आंदोलन में विशिष्ट भूमिका निभाई। 1955 व 1956 में भूस्वामी आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई। पिलानी में अध्ययन के दौरान क्षत्रिय युवक संघ की स्थापना की। एक अनूठी सामाजिक संस्कारमयी मनोवैज्ञानिक प्रणाली के द्वारा अनुशासित, सुसंस्कारित, देशभक्त व समर्पित कार्यकर्त्ता के निर्माण का दायित्व निभाया। तनसिंह ने राजस्थान में ही नहीं गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश हरियाणा में भी अलख जगाई। इसी का नतीजा है कि आज देश में लाखों क्षत्रिय युवक संघ के कार्यकर्त्ता संघ की विभिन्न गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं। तनसिंह के सफल व्यक्तित्व के पीछे उनकी माता मोतीकंवर का हाथ रहा। विद्वान, लेखक, वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार, प्रखर राजनेता के साथ-साथ तनसिंह सच्चे देशभक्त भी थे। उनकी पहचान तरूण तपस्वी के रूप में थी। अपने जीवनकाल में तनसिंह ने एक दर्जन से अधिक पुस्तकें लिखीं, जो कर्त्तव्य पथ की ओर अग्रसर होने वालों के लिए पथ प्रदर्शक की भूमिका निभाती है। अपने साथियों व सहपाठियों को आत्म साक्षात्कार के लिए आठ सूत्री संपूर्ण योग मार्ग का पाठ पढ़ाया। संगठन की उलझनों का बारीकी से विश्लेषण व समाधान कर बेजोड़ संगठन निर्माण की भूमिका तैयार की। पौष कृष्णा तीज संवत् 2035 तनदुसार 7 दिसम्बर, 1979 को 55 वर्ष की आयु में उनका देहांत हो गया। उनके जीवन का हर पहलू प्रेरणादायक रहा है।

नगरपालिका अध्यक्ष से सांसद तक का सफर
तनसिंह का राजनीतिक जीवन विविधतापूर्ण रहा। वे वर्ष 1949 से 1952 तक बाड़मेर नगरपालिका के अध्यक्ष रहे। इसी प्रकार 1952 से 1957 व 1957 से 1962 तक विधायक रहे। इस दौरान 1956 से 1957 तक वे राजस्थान विधानसभा के प्रतिपक्ष के नेता रहे। बाड़मेर जैसलमेर लोकसभा सीट का उन्होंने 1962 से 1967 व 1977 से 1979 तक प्रतिनिधित्व किया। सांसद के रूप में उन्होंने अलग पहचान कायम की। सादा जीवन उच्च विचार के धनी तनसिंह ने जीवन भर समाज और मानवता की सेवा की। जीवन के 55 वर्षो में राजनैतिक, सामाजिक, साहित्यिक क्षेत्र में एक अनूठी मिसाल कायम की जिसे लोग सदियों तक याद रखेंगे। समाज की नई पौध में संगठन और जागरण ही नहीं बल्कि समाज के प्रति तड़पन और पीड़ा के भाव हृदय में पैदा किए। समाज को घने अंधकार से प्रकाश की ओर लाने का अनुकरणीय उदाहरण पेश किया।

धोती पहने सीमांत सांसद दिल्ली पहुंचे ….
बीबीसी ने तनसिंह के पहली बार संसद आगमन पर टिप्पणी की कि पांव में देश पगरखी, सिर पर साफा व धोती पहने सीमांत सांसद दिल्ली पहुंचे। तनसिंह की सादगी को लेकर राष्ट्रीय दैनिक ने ऐन एमपी इन पीओन डेªस शीर्षक आलेख में उनकी सादगी का बखान किया। संसद में रहते इस युवा सांसद ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू को प्रभावित किया। चीन ने जब भारत पर आक्रमण किया तब संसद में पण्डित नेहरू को जवाब देना भारी पड़ गया। समूचा विपक्ष उनके खिलाफ खड़ा था। यहां तक कि सत्ताधारी सदस्य भी उन्हें घेरने में लगे हुए थे। पण्डित नेहरू भावविहृल हो गए। उस वक्त तनसिंह ने कहा कि आज देश को एकजुटता दिखाने की जरूरत है न कि पण्डित नहेरू की नुक्ताचीनी करने की। तनसिंह की इस बात से पण्डित नेहरू इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने संसद में उन्हें थैंक यू यंग मैन … कह कर धन्यवाद ज्ञापित किया।

उन्होंने जीवन की ठोकरों को अपना सौभाग्य माना….
तनसिंह को किसी भौतिक पदार्थ की आकांक्षा नहीं रही। वे अपना जीवन देकर सबके लिए जीवन खरीदते रहे। पूर्ण गौरव के साथ आश्वस्त होकर वे जीवन तथा विश्वास प्राप्त करने के आकांक्षी रहें। उन्होंने अपने कर्त्तव्य को ही जीवन की सार्थकता और गहन उत्तरदायित्व समझा और पूर्ण रूप से तथा सदैव के लिए अपने आपको लक्ष्य से बांध लिया। समाज में अनुशासन की भावना जागृत करने के लिए वे जीवन पर्यन्त स्वयं आत्मानुशासन में बंधे रहे। वे कर्म को ही जीवन और अकर्मण्यता को मृत्यु मानते थे। उथल-पुथल और निराशा की घड़ियों को अपनी परीक्षा तथा जीवन की ठोकरों को अपना सौभाग्य माना। राजमहल की अपेक्षा झौंपड़ी में वे अधिक प्रसन्न रहते। साधना के क्षेत्र में उन्होंने भय, घृणा और लज्जा को तिलांजलि दे रखी थी। कठिनाईयों-विपत्तियों में, सुख में और दुख में भी वे अपने बंधुओं के बीच प्रसन्न रहते। अपने सहयोगियों के दोषों की अपेक्षा तनसिंह ने उनके गुणों का ही चिंतन किया तथा कभी किसी को बुरा नहीं बताया। बुरे की बुराई भी स्वयं ओढ़कर कहा कि हम सब एक से हैं। अपने साधना कुटुम्ब के हित के लिए अगर स्वयं को अपमान भी सहन करना पड़ा हो सहर्ष आगे बढ़कर ओढ़ लिया। उन्हें आवश्यकता भी थी तो ऐसे पात्रों की, जो समाज में जीवन जुटा सकें, गौरव जुटा सकें और सम्मान को जन साधारण में बांट सके। जिसका कुटुम्ब भी श्री क्षत्रिय युवक संघ के रूप में अनुठी रचना है। जिसकी एकता में पिता का वात्साल्य, मां की ममता, गुरू की कृपा, भगिनी का स्नहे, बंधु का बंधुत्व, पत्नी की परायणता, पुत्र की भक्ति और जीवन के समस्त कर्त्तव्याधिकारों की अनेक धाराएं समाई हुई थी। इस कौटुम्बीय जीवन में अलग उनकी कोई महत्वकांक्षा नहीं रही।

तनसिंह ने कौम की, भारत माँ की, गौरवमय उज्ज्वल संस्कृति की जैसे करवट बदल दी। वे किसी लकीर पर चलने वाले परंपरा पुरूष नहीं थे बल्कि स्वयं लकीर बनाते, विचारों के बीहड़ को काटकर साफ कर देते और अबाध गति से चलते रहते। वे कहीं नहीं ठहरें….. चलते रहे, क्योंकि उन्होंने सत्य को बाहर से नहीं भीतर से पकड़ा। उन्होंने व्यक्ति को महत्व नहीं दिया, गुणात्मक शक्ति को ही महत्व दिया। उनकी प्रस्तुति शब्दों और लेखों का विषय नहीं, अनुभूति का विषय है। उनका दर्शन त्याग, श्रम और भक्ति का ही दर्शन नहीं, क्रांति का ही दर्शन है। वस्तुतः वे सबल और सामर्थ्यवान थे पर सदा अकिंचन और साधारण ही बने रहे। वे संपन्नता का जीवन जी सकते थे पर ऐसे सुखों का त्याग कर एक साधारण व्यक्ति की तरह उम्र भर सादे वस्त्र, सादे भोजन और सादे रहन-सहन को ही उन्होंने अपनाया। इसी से समाज में एक सबल नेतृत्व का उदय हुआ। लोगों को आगे लाकर और स्वयं पीछे रहकर वे भावी नेतृत्व की संभावनाएं खोजते रहते थे। ऐसे सबल नेतृत्व का प्रभाव समाज के दीघकालीन हित में होता है, जिसकी भाषा में जीवन के स्थायी मूल्यों सहित व्यापक दृष्टिकोण चमकता है। उनके जैसे दुर्लभ व्यक्तित्व का निर्माण युग संधियों के काल में होता है। जिनके चुम्बकीय आकर्षण से देश, काल, पात्र की भिन्नताएं खो जाती है। भले ही आज तनसिंह का शरीर नहीं रहा, पर सत्य यह भी है कि वे गए भी नहीं है। एक नहीं, अनेकों स्वरूपों में सशरीर वे आज भी हमारे बीच हैं। उनका विचार यत्र-तत्र-सर्वत्र पनपता नजर आ रहा है। लोगों ने उन्हें चाहे अपने पूज्य, प्रणेता और मार्गदर्शक के रूप में देखा और वे भी उसे मार्ग पर चले पड़े, चल रहे हैं।

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