समय नहीं, गुणवत्ता जरूरी

कामकाज

  • जबरन अधिक काम कराना मानसिक व शारीरिक शोषण
  • देश में श्रम कानून को सख्ती से लागू करना जरूरी
  • श्रम घंटों पर सरकारी व निजी संस्थानों में एकरूपता के प्रयास हो

राकेश गांधी
स्वतंत्र पत्रकार

“मुझे खेद है कि मैं आप लोगों से रविवार को काम नहीं करा सकता। आप घर बैठकर क्या करेंगे? आप अपनी पत्नी को कितनी देर तक निहार सकते हैं और आपकी पत्नी कितनी देर तक आपको देख सकती है।” एलएंडटी के चेयरमैन एसएन सुब्रमण्यन के इन शब्दों ने 90 घंटे के कार्य सप्ताह को लागू करने के बयान ने पूरे देश में आक्रोश फैला दिया सोशल मीडिया पर गुस्सा फूट पड़ा, जिससे देश में शोषणकारी काम के घंटों के महिमामंडन को लेकर चल रही चर्चा तेज हो गई।

एल एंड टी के चेयरमैन एस.एन. सुब्रह्मण्यन की कर्मचारियों को सप्ताह में 90 घंटे काम करने और रविवार को भी कार्यालय आने की सलाह को देश भर में विभिन्न वर्गों के लोगों ने लगभग नकार ही दिया है। पिछले दिनों दिया गया ये बयान सही मायनों में कर्मचारियों के शोषण को प्रेरित करता है। वे यदि काम के घंटे बढ़ाने के बजाए काम की गुणवत्ता बढ़ाने की बात करते तो जरूर इस पर स्वस्थ व बेहतर चर्चाएं होती।

सुब्रह्मण्यन का यह बयान एक ऐसे दौर में आया है, जब भारत और अन्य देशों में कार्यकुशलता, उत्पादकता और श्रम की समर्पण की भावना पर काफी चर्चा हो रही है। उन्होंने चीन और अमेरिका के कामकाजी घंटे का उदाहरण देते हुए कहा था कि चीन जल्द ही अमेरिका को पीछे छोड़ सकता है, क्योंकि चीनी कर्मचारी 90 घंटे काम करते हैं, जबकि अमेरिकी केवल 50 घंटे। हालांकि कंपनी की एचआर प्रमुख सोनिका मुरलीधरन ने बाद में कहा कि चेयरमैन ने बहुत ही हल्के फुल्के अंदाज में ये टिप्पणी की थी और उनका उद्देश्य किसी सख्त कार्य संस्कृति को बढ़ावा देना कतई नहीं था। उनका यह बयान संभवतः कंपनी की प्रतिस्पर्धात्मक स्थिति को मजबूत करने के संदर्भ में रहा होगा। वह यह समझते होंगे कि कार्यकुशलता और उत्पादन को बढ़ाने के लिए कर्मचारियों को अधिक घंटे समर्पित करने की आवश्यकता है। विशेष रूप से, एक वैश्विक और तेज़ी से बदलती बाजार परिस्थितियों में, कंपनियों को अपने लक्ष्य प्राप्त करने के लिए अतिरिक्त समय की आवश्यकता महसूस हो सकती है। एल एंड टी जैसे बड़े कॉर्पोरेशनों के लिए विकास और विस्तार के लिए उच्च स्तर की प्रतिबद्धता की आवश्यकता होती है।

सुब्रह्मण्यन का बयान यह दर्शा सकता है कि वह अपने कर्मचारियों से अधिक समय और प्रयास की उम्मीद करते हैं, ताकि कंपनी और भी विस्तार कर सके, खासकर परियोजनाओं को समय पर पूरा करने और वैश्विक प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए। वैसे भारतीय संस्कृति में, काम के प्रति समर्पण और कड़ी मेहनत को महत्वपूर्ण माना जाता है। कई भारतीय उद्योगपतियों के लिए, लंबे कार्य घंटे काम के प्रति समर्पण और एक मजबूत कार्य नैतिकता को दर्शाते हैं। यह बयान भारतीय पेशेवरों से अधिक अपेक्षाओं को स्पष्ट करता है, जो एक व्यापक सांस्कृतिक दृष्टिकोण का हिस्सा हो सकता है।

विश्व भर में कई कंपनियों में कर्मचारियों से अधिक काम की उम्मीद की जाती है, खासकर उच्च-स्तरीय और विशेषज्ञ कार्यों में। सुब्रह्मण्यन ने शायद इस विचार को आगे बढ़ाया कि समय के साथ अधिक कार्य करने की जरूरत हो सकती है, विशेष रूप से तब जब कंपनी तेज़ी से आगे बढ़ने की कोशिश कर रही हो। एल एंड टी जैसी कंपनियों के लिए बड़े निर्माण या इंजीनियरिंग प्रोजेक्ट्स के लिए समय-संवेदनशील होते हैं, जिसमें प्रत्येक कर्मचारी का योगदान महत्वपूर्ण होता है। ऐसे में कभी-कभी उच्च घंटे की आवश्यकता होती है। वे भले ही अपनी कंपनी के आगे बढ़ाने के लिए ऐसा कह गए, लेकिन उनके इस बयान ने विवाद को जन्म दिया है, क्योंकि ऐसे बयान से पहले उन्हें ये सोचना चाहिए था कि लंबे कार्य घंटे तक कार्य मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं, और इससे कर्मचारियों के कार्य-जीवन संतुलन में बाधा उत्पन्न हो सकती है।

कई विशेषज्ञ और श्रमिक संगठन इसे अस्वस्थ और अव्यावसायिक मानते हैं, जिससे समाज में इसके खिलाफ राय बनती है। हां, उन्हें ऐसे बयान देने से पहले इतना उतावला नहीं होना चाहिए था, बल्कि उन्हें इस बात पर विचार करना चाहिए था कि काम के घंटे को गुणवत्तापूर्ण कैसे बनाया जाए।

दूसरे कुछ बड़े उद्योगपतियों ने भी कार्य की गुणवत्ता पर ज्यादा देने की बात कही है। एक चेयरमैन होने के नाते उनमें इतना तो अनुभव होगा ही कि कम समय में अधिक गुणवत्ता का काम कैसा किया जा सकता है। उन्हें इतना भी पता होगा कि प्रत्येक व्यक्ति की काम करने की समझ व शक्ति अलग- अलग होती है। हां, यदि किसी कर्मचारी विशेष से उसकी शारीरिक व मानसिक क्षमता के अनुरूप उसके कार्य घंटे व उसी अनुरूप वेतन- भत्ते को लेकर आपसी सहमति हो तो ये अलग बात हो सकती है, लेकिन सामूहिक तौर पर ऐसा स्वीकार्य नहीं होगा। इसके अलावा सरकार को चाहिए कि श्रम कानून के जरिए सरकारी व निजी संस्थानों में श्रम के घंटों में एकरूपता रखी जाए।

भारत में औसतन कर्मचारी प्रति सप्ताह 46.7 घंटे काम करते हैं, और लगभग 51% कर्मचारी प्रति सप्ताह 9 घंटे या उससे अधिक कार्य करते हैं। भारत में अधिकतर श्रमिक अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं और यहां श्रम कानूनों का क्रियान्वयन भी कमजोर माना जा सकता है। यदि सरकार निजी क्षेत्रों में कार्यरत श्रमिकों का सर्वे करवाए तो उन्हें पता चलेगा कि वहां सुब्रह्मण्यन के कल्पना से भी अधिक समय तक कर्मचारी काम करते हैं। कुछ संस्थानों में तो साप्ताहिक अवकाश तक नहीं मिलता होगा। ये ही नहीं, पहले की तरह अवकाश पर काम करने के ऐवज में अतिरिक्त भुगतान तक नहीं मिलता। एक तरह से ऐसे कर्मचारी न केवल शोषण के शिकार हैं, बल्कि वे शारीरिक व मानसिक तौर पर भी बीमार पाए जा सकते हैं। यदि दुनिया भर में नजर दौड़ाएं तो चीन के बाद भूटान के लोग औसतन साप्ताहिक 54 घंटे काम करते हैं। इसके अलावा संयुक्त अरब अमीरात में 50.9 घंटे, लेसोथो में 50.4 घंटे, कांगो में लोग सप्ताह में 48.6 घंटे काम करते हैं। कई विकासशील देशों में लोग अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए अधिक घंटे काम करते हैं। कुछ देशों में श्रम कानून इतने सख्त नहीं होते, जिससे नियोक्ता कर्मचारियों से अधिक घंटे काम करवाते हैं। कुछ संस्कृतियों में अधिक काम करना समर्पण और मेहनत का प्रतीक माना जाता है। कई देशों में अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत लोगों की संख्या अधिक होती है, जहां कार्य घंटे नियमित नहीं होते और अक्सर अधिक होते हैं।

सप्ताह में 40-45 घंटे कार्य करना सामान्य

मानसिक संतुलन और समग्र भलाई के लिए सप्ताह में 40 से 45 घंटे काम करने का आदर्श समय माना गया है। हालांकि ये व्यक्तिगत आवश्यकता, कार्य की प्रकृति और जीवन के अन्य पहलुओं पर निर्भर करता है। यह समय आमतौर पर 5 दिन के कार्य सप्ताह के लिए उपयुक्त होता है, जिसमें एक दिन का पर्याप्त आराम और व्यक्तिगत समय मिल पाता है। अन्यथा अधिक काम से मानसिक थकान हो सकती है, जिससे तनाव, चिंता, हृदय रोग, और अवसाद जैसी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। सप्ताह में कम से कम 1-2 दिन का आराम अत्यंत आवश्यक है, जिसमें कर्मचारी अपनी पसंदीदा गतिविधियों में समय बिता सकें और परिवार या दोस्तों के साथ समय व्यतीत कर सकें। इसके अलावा भी दिन में कार्य के दौरान छोटे-छोटे ब्रेक लेने से मानसिक संतुलन बनाए रखने में मदद मिलती है। लगातार अत्यधिक काम करने से ध्यान की कमी, थकावट और तनाव हो सकता है। प्रतिदिन हल्का व्यायाम, ध्यान, या योग मानसिक ताजगी बनाए रखने में सहायक होते हैं। ऐसे में सप्ताह में 40-45 घंटे तक काम के साथ ही यदि व्यक्ति अन्य गतिविधियों, परिवार और विश्राम के लिए समय निकालता है, तो मानसिक स्वास्थ्य बेहतर रहता है।

सुब्रह्मण्यन के बयान के बाद प्रतिक्रियाएं

महिंद्रा समूह के चेयरमैन आनंद महिंद्रा ने इस बयान पर मजे लेते हुए कहा था, “मेरी पत्नी अद्भुत हैं, मुझे उन्हें निहारना पसंद है,” और यह भी जोड़ा कि बहस काम के घंटों की संख्या पर नहीं, बल्कि काम की गुणवत्ता पर होनी चाहिए।

बजाज ऑटो के प्रबंध निदेशक राजीव बजाज ने भी ये ही कहा, “भारतीय कंपनियों को लंबे कार्य घंटों की पुरानी नीतियों से हटकर काम की गुणवत्ता पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।”

आरपीजी समूह के चेयरमैन हर्ष गोयनका ने कहा, “90 घंटे प्रति सप्ताह? क्यों न रविवार का नाम बदलकर ‘सन-ड्यूटी’ कर दें और ‘डे ऑफ’ को एक मिथक बना दें!”

प्रसिद्ध सिने अभिनेत्री दीपिका पादुकोण ने सुब्रह्मण्यन के बयान की आलोचना करते हुए इसे “चौंकाने वाला” बताया और कहा, “मेंटल हेल्थ मायने रखता है”।

शिवसेना (यूबीटी) की सांसद प्रियंका चतुर्वेदी ने इस बयान को “महिला विरोधी” और “भारत के नए युग के गुलाम बनाने वालों” जैसा करार दिया।

कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने सुब्रह्मण्यन के बयान पर व्यंग्य करते हुए कहा, “कुछ बकाया बाकी है,” और इसे श्रमिकों के अधिकारों के खिलाफ बताया।

इन्फोसिस के सह-संस्थापक एनआर नारायण मूर्ति ने सुब्रह्मण्यन के बयान पर पहले लगभग सहमति पूर्ण टिप्पणी के बाद सफाई देते हुए कहा कि उनका मकसद किसी पर दबाव डालना नहीं था, बल्कि उनका कहना है कि हर व्यक्ति को अपनी स्थिति और जरूरतों के हिसाब से फैसला लेना चाहिए। उन्होंने खुद का उदाहरण देते हुए बताया कि उन्होंने इन्फोसिस में 40 साल तक हफ्ते में 70 घंटे से ज्यादा काम किया, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि हर कोई ऐसा ही करे।

पौराणिक शास्त्र में भी समय के विवेकपूर्ण उपयोग पर जोर

आधुनिक काल में तो छोड़िए, भारतीय पौराणिक शास्त्र के अनुसार हमारे अतीत में भी कभी जीवन में कार्य करने के घंटों की स्पष्ट सीमा तय नहीं हुई। बल्कि हमेशा से संतुलित जीवन, कर्तव्य और आत्म-उन्नति के लिए समय के विवेकपूर्ण उपयोग पर जोर दिया जाता रहा है। इतना अधिक कार्य करने को भी अनुचित माना गया है, जिससे स्वास्थ्य और आत्म-कल्याण प्रभावित हो। गीता के अध्याय 6, श्लोक 16-17 में स्पष्ट लिखा है :
“नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।।”
(अर्थात: योगी को न अधिक खाने वाला होना चाहिए, न ही अधिक उपवास करने वाला। न अधिक सोने वाला, न ही जागने वाला। जीवन में संतुलन ही योग है।)
मनुस्मृति में जीवन को चार आश्रमों में विभाजित किया गया है—ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, और संन्यास। गृहस्थ आश्रम में कार्य (अर्थ और काम) को प्रमुखता दी गई है, लेकिन उसमें धर्म और कर्तव्य का पालन भी आवश्यक माना गया है।
आयुर्वेदिक ग्रंथों में दिनचर्या और जीवनशैली पर चर्चा की गई है। इसमें व्यक्ति के लिए कार्य और विश्राम का समय संतुलित रखने की सलाह दी गई है।

मशीनरी युग में काम के घंटे क्यों गिनने
मशीनरी युग में अब काम के घंटे नहीं, गुणवत्ता पर ध्यान देना जरूरी है। जिन्होंने 90 घंटे का बयान दिया है वे साफ्टवेयर ट्रेड के हैं और उनकी अपनी दिक्कतें रही होंगी। और वैसे भी आज के जमाने में हर इंसान काम के साथ- साथ बेहतर जीवन जीना चाहता है। ऐसे में 90- 100 घंटे काम की बातें करना बेमानी है। वैसे मैं बता दूं कि कोई 20-25 साल पहले तक हैण्डीक्राफ्ट व्यवसाय में कर्मचारी अविश्वसनीय तरीके से घंटों काम करते थे और समय की परवाह कहां होती थी। उन्हीं की बदौलत आज ये व्यवसाय इतनी ऊंचाइयों पर है। आज मशीनरी युग है और हमें भी उसी अनुरूप बजाए घंटे गिनने के बेहतर काम की तरफ ध्यान देना होगा, ताकि कर्मचारियों को अपने लिए भी समय मिल सके।

हंसराज बाहेती,
सीओए मेम्बर ईपीसीएच व चेयरमैन उम्मेद क्लब

विकसित होना है तो काम करने में क्या बुराई
जब तक आप पूरी तरह विकसित नहीं हो जाते या अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच जाते तो काम करने में क्या बुराई है? एल एण्ड टी के चेयरमैन के बयान को सकारात्मकता से लेने की जरूरत है। हम भी अपने युवा काल में काम सीखने जब इंडस्ट्रीज में आए थे तो सवेरे जल्दी ही काम पर पहुंच जाया करते थे। देश को विकसित देशों की शृंखला में खड़ा करना है तो काम के घंटे पर क्यों विचार करना? खूब काम पर ध्यान देना चाहिए। जब आप अपना व संस्थान का विकास कर लेते हैं तो फिर परिवार व खुद के लिए समय निकालना ज्यादा आसान हो जाता है। जब विकास करना है तो काम की समय सीमा नहीं देखनी चाहिए। हालांकि कोई भी संस्थान क्यों न हो, जबरन कोई काम नहीं करवाता। हर मालिक-कर्मचारी अपने परिवार के लिए ही अधिक काम करके आगे बढ़ना चाहता है। इसी में सभी का विकास भी है। – अशोक संचेती, उद्यमी

कर्मचारी क्या कोल्हू का बैल है?
कर्मचारी को कोल्हू का बैल मत समझिए। संस्थान को कर्मचारी के मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य पर भी ध्यान देना चाहिए। सुब्रह्मण्यन का सप्ताह में 90 घंटे काम करने का बयान बेतुका है। हम जहां बैंक कर्मियों से पांच दिन के सप्ताह में अधिकतम 45 घंटे काम कराने की मांग कर रहे हैं, ये कर्मचारियों से दुगुना काम करवाने की फिराक में हैं और रविवार को भी घर का नहीं छोड़ने वाले। ये सिस्टम बिल्कुल गलत है। जहां तक बैंक कर्मियों का सवाल है, जिम्मेदार अधिकारी अभी भी क्षमता से अधिक काम कर रहे हैं और कम कर्मचारियों की संख्या के चलते काम के दबाव में अवसाद ग्रस्त हो रहे हैं। बैंकिंग संस्थान को तत्काल इस ओर ध्यान देना चाहिए, ताकि इन जिम्मेदार अधिकारियों को इतना समय तो मिले कि वे अपना व अपने परिवार का ख्याल कर सकें।

  • भवानी सिंह सोलंकी
    उपाध्यक्ष- एसबीआईएसए, राजस्थान, जयपुर सर्किल

आजादी के 75 साल बाद भी काम का कल्चर नहीं बदला
देश को आजाद हुए सात दशक से अधिक समय हो गया है, लेकिन काम का कल्चर आज भी वहीं है। आज भी कमजोर सिस्टम के चलते रेलवे कर्मचारी 10 से 15 घंटे लगातार काम करते हैं। ये मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य के लिहाज से बिल्कुल उचित नहीं है। काम की दृष्टि से कर्मचारी भी कम हैं, जिससे भी काम का भार अधिक रहता है। किसी भी कर्मचारी से लगातार 8 घंटे से अधिक काम नहीं लिया जाना चाहिए। हमारे रेलवे ट्रेक की देखरेख करने वाले कर्मचारियों व लोको पायलट की स्थिति इस मामले ज्यादा गंभीर हैं, जो क्षमता से अधिक समय तक लगातार काम करते हैं। इस वर्क कल्चर को तत्काल सही किया जाना जरूरी है – मनोज कुमार परिहार, मंडल सचिव, नार्थ-वेस्ट रेलवे एम्पलाइज यूनियन।

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