देवकीनंदन व्यास
भारत, एक ऐसा देश जो अपनी वैविध्यपूर्ण संस्कृति पर गौरव अनुभव करता है। अपने गैर-सांप्रदायिक संवैधानिक ढांचे के लिये दुनिया के तमाम लोकतांत्रिक देशों के बीच अपनी अलहदा पहचान रखने वाले इस देश में जाति या धर्म के आधार पर भेदभाव को कोई जगह नहीं दी गई है।
विविधता में एकता इस देश की पहचान है और इसीलिए भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 यह प्रावधान करता है कि स्टेट यानी सरकार किसी भी व्यक्ति को कानूनी-समानता से इनकार नहीं करेगी और प्रत्येक व्यक्ति को भारत में कानून के समक्ष समान सुरक्षा प्रदान की जाएगी।
दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में अब बहस का यह मुद्दा यह है कि जब भारत में जाति, धर्म, लिंग, सामाजिक या आर्थिक आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता तो, फिर निश्चित ही इस देश में उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 को लागू किया जाना संविधान की मूल भावना के प्रतिकूल है।
राजस्थान उच्च न्यायालय में अधिवक्ता दीपक बोड़ा उपासना स्थल अधिनियम की मुखालफत करते हुए कहते हैं कि यह कानून संविधान प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है। बोड़ा भारतीय संविधान के प्रावधानों के हवाले से कहते हैं कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 15 और 16 धार्मिक और सामाजिक भेदभाव को प्रतिबंधित करता है और धर्मनिरपेक्षता को संविधान के मूल सिद्धांत के रूप में स्थापित करता है। लेकिन, उपासना स्थल अधिनियम कुछ विशेष धार्मिक स्थलों को प्राथमिकता देता है, जो एक धर्म विशेष से संबंधित हैं और इसे अन्य धर्मों के अधिकारों के मुकाबले विशेष रूप से लागू करता है। बकौल बोड़ा- किसी भी देश को आक्रांताओं और लुटेरों की निशानियों पर गौरव नहीं हो सकता।
दरअसल, उपासना स्थल अधिनियम को 1991 में तब लागू किया गया था, जब केन्द्र में कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाली प्रधानमंत्री पी.वी नरसिंह राव की सरकार थी। 1991 का चुनाव मध्यावधि चुनाव था। 9वीं लोकसभा केवल 16 महीने में भंग हो गई थी और देश को फिर से 1991 में नए नेतृत्व का चयन करना पड़ रहा था। इसी साल अयोध्या में राममंदिर का मुद्दा भी प्रबल हो उठा था। 1991 के आम चुनाव में किसी भी राजनीतिक दल को पूर्ण बहुमत तो नहीं मिला, लेकिन कांग्रेस ने सर्वाधिक 244 सीटें हासिल की। वहीं, भारतीय जनता पार्टी 120 सीटों के साथ दूसरे स्थान पर रही।
इसी चुनाव से पूर्व मतदाताओं को रिझाने के लिए कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में धार्मिक स्थलों के रूपांतरण को रोकने के लिए कानून लाने का वादा किया। जून 1991 में सत्ता संभालने के बाद महज तीन महीने में 16 सितम्बर 1991 को कांग्रेस सरकार उपासना स्थल अधिनियम लेकर आ गई थी।
प्लेसेज ऑफ वर्शिप (स्पेशल प्रोविज़न्स) एक्ट, 1991 के मुताबिक 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता। यानी यदि कोई स्थल मंदिर/मस्जिद आदि देश की आजादी के समय जिस किसी भी धर्म के पूजा स्थल के रूप पहचान रखता था, इस कानून के चलते उसे अब तोड़ा, ढहाया, गिराया या बदला नहीं जा सकता। अब वह हमेशा के लिए उसी धर्म का पूजा स्थल रहेगा। यदि कोई इस एक्ट का उल्लंघन करने का प्रयास करता है तो उसे जुर्माना और तीन साल तक की जेल भी हो सकती है। कुल-मिलाकर इस कानून का उद्देश्य धार्मिक स्थलों के रूपांतरण को रोकना और 15 अगस्त 1947 को जो धार्मिक स्वरूप था, उसे बनाए रखने के लिए प्रावधान करना था।
भाजपा और अन्य विपक्षी दलों ने हालांकि इस कानून का पुरजोर विरोध किया, लेकिन आंकड़ों में कमजोर विपक्ष संसद में इस कानून को पारित होने से रोक न सका। चूंकि बाबरी मस्जिद व राम जन्मभूमि का विवाद 1947 से पहले से ही चल रहा था, लिहाजा बाबरी मस्जिद प्रकरण को इस नए कानून के दायरे से बाहर ही रखा गया।
तत्कालीन सरकार और सरकार की नीतियों की हिमायत करने वालों ने इस कानून को भारत के साम्प्रदायिक ढांचे को बचाए रखने का प्रयास बताया और तारीफ की।
उपासना स्थल अधिनियम की धारा 4 (1) के अनुसार 15 अगस्त 1947 को विद्यमान किसी उपासना स्थल का धार्मिक स्वरुप वैसा ही बना रहेगा, जैसा कि वो 15 अगस्त 1947 को था। वहीं, धारा 4(2) में कहा गया है कि 15 अगस्त 1947 को मौजूद किसी भी उपासना स्थल के धार्मिक स्वरुप के परिवर्तन के संबंध में किसी भी न्यायालय, अधिकरण या किसी अन्य प्राधिकारी के समक्ष लंबित कोई भी मुकदमा या कानूनी कार्यवाही समाप्त हो जाएगी और कोई नया मुकदमा या कानूनी कार्यवाही शुरू नहीं की जाएगी। यदि 15 अगस्त 1947 के बाद तथा इस अधिनियम के लागू होने से पहले किसी उपासना स्थल का धार्मिक स्वरुप बदला गया है और उससे संबंधित कोई वाद या अपील किसी न्यायालय में लंबित है, तो उसका निर्णय धारा 4(2) के अनुसार होगा। धारा 5 के अनुसार इस अधिनियम की कोई धारा राम जन्मभूमि/बाबरी मस्जिद मामले से संबंधित किसी भी मुकदमे अपील या कार्यवाही पर लागू नहीं होगी। इसी तरह धारा 6 के अनुसार अधिनियम के प्रावधानों का उल्लघंन करने पर अधिकतम 3 वर्ष तक की सजा का प्रावधान है।
यह अधिनियम ऐसे किसी पुरातात्त्विक स्थल पर लागू नहीं होता है, जो प्राचीन स्मारक और पुरातत्त्व स्थल एवं अवशेष अधिनियम, 1958 द्वारा संरक्षित है। यदि कोई वाद इस अधिनयम के लागू होने से पहले ही अंतिम रूप से निपटाया जा चुका है, तो ये अधिनियम उस वाद पर भी लागू नहीं होता है। इतना ही नहीं, यदि कोई विवाद जिसे इस अधिनियम के लागू होने से पहले ही दोनों पक्षों द्वारा आपसी सहमति से सुलझाया जा चुका हो, तो उस पर भी यह अधिनियम लागू नहीं होता है।
इन्हीं सब प्रावधानों के चलते यह कानून हमेशा से विवादों का सबब रहा है। कानूनविदों में इस आधार पर भी इसकी आलोचना की जाती है कि यह न्यायिक समीक्षा पर रोक लगाता है, जो कि संविधान की एक बुनियादी विशेषता है।
इस कानून को लेकर मई 2022 से देश भर में बहस-मुबाहिसों का दौर जारी है। दरअसल, 20 मई 2022 को ज्ञानवापी विवाद मामले की सुनवाई के दौरान देश के सर्वोच्च न्यायालय ने मौखिक टिप्पणी की थी कि- उपासना स्थल अधिनियम में पूजा स्थल के वास्तविक स्वरूप का पता लगाने पर रोक नहीं है। इसके बाद 4 अगस्त 2023 को उच्चतम न्यायालय में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चन्द्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस आदेश को स्थगित करने से इनकार कर दिया, जिसमें आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (एएसआई) को मस्जिद परिसर में वैज्ञानिक सर्वेक्षण करने की अनुमति दी गई थी।
इस कानून पर ताजा बहस देश भर की अदालतों में दायर हुई अर्जियों के चलते शुरू हुई है। दरअसल, राम मंदिर निर्माण के बाद हिन्दू धर्मस्थलों को लेकर सक्रिय हुए व्यक्तियों और संगठनों ने देश के कई राज्यों की अदालतों में कई धर्मस्थलों के स्थान पर हिन्दू धर्मस्थल होने को लेकर जांच करने के लिए अर्जियां दाखिल की हैं। ऐसे में पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट ने भी देश भर की सिविल अदालतों को अगले आदेश तक किसी भी पूजा स्थल के स्वामित्व और शीर्षक को चुनौती देने या विवादित धार्मिक स्थलों के सर्वेक्षण का आदेश देने से रोक दिया था और यह स्पष्ट कर दिया कि कोई भी प्रभावी आदेश पारित नहीं किया जा सकता है।
उत्तरप्रदेश के संभल जिले में एक मस्जिद के स्थान पर हिंदू मंदिर के होने के दावे ने भी इस कानून पर बहस को हवा दी है।
जानकारों की मानें तो अभी उच्चतम न्यायालय में इस विषय से प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से जुड़ी कुछ याचिकाएं विचाराधीन हैं। इसके अलावा कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जैसे राजनीतिक दल इस कानून के प्रभावी क्रियान्वयन की मांग के साथ देश की सबसे बड़ी अदालत में जाने की तैयारी में हैं। उपासना स्थल अधिनियम का पक्ष लेने वालों का मानना है कि यह अधिनियम किसी विशेष धार्मिक समूह के अधिकारों का उल्लंघन नहीं करता, बल्कि देश में सांप्रदायिक सद्भभाव को बनाए रखने के लिए आवश्यक है। इस बीच, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन यानी एआईएमआईएम के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी भी इस कानून को प्रभावी रूप से लागू करने की गुहार लेकर सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर दस्तक दे चुके हैं, जहां फरवरी के दूसरे सप्ताह में सभी याचिकाओं पर सुनवाई होने की उम्मीद है। ऐसे में सभी पक्षों की निगाहें सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर टिकी हैं।