राजीव हर्ष
वरिष्ठ पत्रकार
पश्चिम बंगाल का राजनीतिक परिदृश्य कुछ ऐसा है कि एक बार जो दल सत्ता में आ जाता है फिर उसे सत्ता से बेदखल करना मुश्किल हो जाता है। इस राज्य में वामदल लगातार 34 साल सत्ता में रहे।
एक समय पश्चिम बंगाल भारत की औद्योगिक राजधानी कहलाता था। वाममोर्चा के शासनकाल में पश्चिम बंगाल का औघेगिक विकास रुक सा गया, उद्योग धंधे बंद होने लगे, उद्योगपति विस्थापित होने लगे। मजदूर गरीब और बेहाल थे। उन्हें बहुत कम मजदूरी मिलती थी। इस दौर में भी वाममोर्चा ने अपने वोट बैंक मजदूर और किसान वर्ग पर अपनी पकड़ मजबूत बनाए रखी। राज्य में तमाम तरह की असुविधाओं और अभाव अभियोगों के बावजूद बुद्धिजीवियों, किसानों और मजदूरों के बल पर वामदलों का शासन निर्विघ्न चलता रहा।
ज्याोति बसु के बाद मुख्यमंत्री बने बुद्धदेव भट्टाचार्य भट्टाचार्य ने औद्योगिक वातावरण को बदलने का प्रयास किया। राज्य में बढ़ती बेरोजगारी से निपटने के लिए निवेश को आमंत्रित किया। सरकार ने जिन उद्योगों को आमंत्रित किया नैनो कार परियोजना उनमें से एक थी। बुद्धदेव की इन योजनाओं को नकारात्मक रूप से देखा गया। नैनो और अन्य परियोजनाओं के लिए किए गए भूमि अधिग्रहण ने राज्य में व्यापक आंदोलन को जन्म दिया। वाममोर्चा का वोटबैंक उसके हाथ से निकल गया। नतीजा यह हुआ कि सत्ता वाम मोर्चा के हाथ से निकल गई।
कार्यकर्ताओं की भूमिका
पश्चिम बंगाल में वामदल पूरी तरह तो नहीं, मगर कुछ कुछ एक दलीय लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले लेनिन के सिद्धातों पर चल रहे थे। वामदलों के अतिरिक्त अन्य राजनीतिक दलों के उभार को वे सहन नहीं कर पाते थे। अपने जमीनी कार्यकर्ताओं की मदद से दूसरे दलों के उभार को रोकते थे और समाज पर अपनी पकड़ बनाए रखते थे।
वामदलों के शासन काल में जमीनी स्तर के कार्यकर्ता समाज में अहम स्थान रखते थे। हर छोटे मोटे विवाद में, मोहल्ले से लेकर पारिवारिक विवाद तक में उनकी भूमिका अहम होती थी। लोग उनसे परेशान भी होते थे,मगर पुलिस और राजनेताओं के संरक्षण के चलते उनका विरोध करने का साहस नहीं कर पाते थे। बहुत से कार्यकर्ता अपनी इस ताकत के बूते पर सिंडीकेट भी चलाते थे।
इन कार्यकर्ताओं को पता रहता था कि कौन व्यक्ति उनकी पार्टी का समर्थक है और कौन नहीं। चुनाव के दौरान वे पूरा प्रयास करते थे कि विरोधी दलों के समर्थकों मतदान केंद्रों तक पहुंचने ही नहीं दिया जाय। ऐसे कार्यकर्ताओं की बदौलत वामदलों ने बंगाल में 34 साल तक शासन किया।
ममता का उद्भव
वामदलों के शासन के खिलाफ लम्बे समय से संघर्षरत ममता बनर्जी ने भूमि अधिग्रहण से उपजे आंदोलन का नेतृत्व किया, वामदलों से छिटके वोट बैंक को अपने पक्ष में कर अगले चुनाव में उहोंने सत्ता की बागडोर सम्भाल ली , वे मुख्यमंत्री बनी।
वामदलों के बहुत से कार्यकर्ता तृणमूल में शामिल हो गए। तृणमूल ने इन कार्यकर्ताओं के बूते समाज पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली।
संगठन के जरिये सत्ता पर पकड़
पश्चिम बंगाल में शिक्षा, स्वास्थ्य संबंधी सेवाओं का हाल बेहाल है। कानून एवं व्यवस्था की स्थिति ठीक नहीं है। सड़के दुर्दशाग्रस्त है। रोजगार के अवसरों का अभाव है। राज्य की वित्तीय हालत ठीक नहीं है। मगर तृणमूल कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा बहुत मजबूत है। कार्यकर्ताओं का जाल निचले स्तर तक फैला हुआ है। संगठन में विरोध के सुरों की कोई जगह नहीं है। ममता बनर्जी सुप्रीमो है। उनके खिलाफ या पार्टी के खिलाफ कोई आवाज उठना संभव नहीं है।
भाजपा की विफलता के कारण
भारतीय जनता पार्टी लम्बे समय से सत्ता में आने का प्रयास कर रही है, लेकिन उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिल पा रही है। भाजपा का मुकाबला तृणमूल कांग्रेस से है जिसका संगठनात्मक ढांचा बहुत मजबूत है। उसकी पहुंच बूथ स्तर तक बहुत मजबूत है। वहीं भाजपा संगठनात्मक रूप से उतनी मजबूत नहीं है। संगठन की पहुंच बूथ स्तर तक न होना भाजपा की विफलता का एक बड़ा कारण है। तृणमूल कांग्रेस अपने मजबूत संगठनात्मक ढांचे की बदौलत भाजपा के प्रयासें को सफल नहीं होने दे रही है।
मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका में
पश्चिम बंगाल में भाजपा को अपेक्षित सफलता न मिलने का एक कारण मुस्लिम आबादी भी है। 2011 की जनगणना के मुताबिक पश्चिम बंगाल में मुस्लिम आबादी 27.1 प्रतिशत है। लोकसभा की 42 में से 13 और विधानसभा की 294 सीटों में से करीब सौ सीटों पर मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं।
मुस्लिम मतदाता आमतौर पर भाजपा के खिलाफ मतदान करते हैं। तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी मुस्लिम मतदाताओं को सहेजकर रखने में कोई कसर नहीं छोड़ती।
भाजपा के खिलाफ लामबंद मुस्लिम मतदाता अपने वोटों का विभाजन भी होने नहीं दे सकते।
तृणमूल की जीत का आधा सफर तो मुस्लिम मतदाताओं का तृणमूल की तरफ रुझान से ही तय हो जाता है।
वामदलों और कांग्रेस की उत्साह हीनता
तृणमूल और भाजपा की प्रतिद्वंद्विता और अपने लगातार खराब प्रदर्शन के चलते कांग्रेस और वामदल उत्साह हीन नजर आते हैं। वे अपने परंपरागत वोट बैंक को भी अपनी ओर खींच नहीं पा रहे हैं। मुस्लिम मतदाता इन दलों से निराश हो चुके हैं और उनके पास तृणमूल को समर्थन देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बच गया है।
भाजपा का राजनीतिक सफ़र
1982 : भारतीय जनता पार्टी ने ममता को चुनौती देने का प्रयास किया है। भाजपा 1982 में पहली बार पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव मैदान में उतरी । कुल 52 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे । इस चुनाव में भाजपा केा महज 129994 वोट हासिल हुए।
1998: भाजपा हर लोकसभा और विधान सभा चुनाव में अपने उम्मीदवार खड़े करती रही। पहली सफलता उसे 1998 के लोकसभा चुनाव में मिली। इस चुनाव में भाजपा ने 14 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे। इनमें से एक दमदम निर्वाचन क्षेत्र से तपन सिकदर ही जीत पाए।
1999: वर्ष 1999 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन कर राज्य में 13 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए और 2 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की।
2001: भाजपा ने 2001 में हुए विधानसभा चुनाव में 266 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए और पूरे राज्य में कुल 5.68 फीसदी मत हासिल किए।
2004: लोकसभा चुनाव में भाजपा बंगाल से एक भी सीट नहीं जीत पाई, लेकिन उसका वोट प्रतिशत बढ़ कर 8.06 फीसदी हो गया । उस समय भाजपा की सहयोगी रहीं तृणमूल कांग्रेस को सिर्फ़ 1 लोकसभा सीट पर जीत हासिल हो पाई।
2006: विधानसभा चुनाव में भाजपा ने तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन किया और 29 निर्वाचन क्षेत्रों पर चुनाव लड़ा। इन निर्वाचन क्षेत्रों में भाजपा को 9.89 फीसदी मत हासिल हुए।
2009 : लोकसभा चुनाव में भाजपा ने गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के समर्थन से दार्जिलिंग लोकसभा सीट पर जीत हासिल की। इस चुनाव में भाजपा को पूरे राज्य में 6.14 फीसदी मत मिले।
2014 : लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 2 सीटें जीतीं। इस चुनाव में 3 सीटों पर भाजपा उम्मीदवार दूसरे स्थान पर रहे। पूरे राज्य में भाजपा को 17.2 फीसदी मत हासिल हुए।
2016 : विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 291 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए 3 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल की।
2019 : लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने 42 निर्वाचन क्षेत्रों में अपने उम्मीदवार खड़े किए और 18 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की।
2024 : लोकसभा चुनावों में भाजपा 12 सीटों पर ही जीत हासिल कर पाई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एवं बीजेपी के सभी आला नेताओं ने पश्चिम बंगाल में 25 से ज्यादा सीटें जीतने का दावा किया था, मगर वह 12 सीटों पर सिमट कर रह गई।