दिनेश सिंदल
कवि, लेखक
मेरा मानना है कि कविता का पहला अक्षर कवि लिखता है और उसका आखरी अक्षर कोई अदृश्य हाथ लिख रहा होता है। यह वह स्थिति है जब कवि और कविता एक हो जाते हैं।
इस समय कवि अपनी चेतना, अपनी अतिचेतना के आगे समूह चेतना (कलेक्टिव कॉन्शसनेस) में विचरण कर रहा होता है। यहां उसका ‘ मैं ‘ शेष नहीं रहता। वह ‘ हम ‘ हो जाता है। कवि खो जाता है। उसे अपने होने का बोध भी नहीं रहता।
हमारे बहुत से शब्द हमारी कलेक्टिव कॉन्शसनेस से आए हैं। अतः उच्चारण की थोड़ी बहुत भिन्नता के साथ वे सभी संस्कृतियों में मिल जाएंगे। सभी भाषाओं में उन्हें देखा जा सकता है।
हमारी बहुत सी कलाएं हमारी कलेक्टिव कॉन्शसनेस से आई है । जैसे चित्रकला। जैसे नृत्य। जैसे संगीत।
हमें पिकासो के चित्रों को समझने के लिए जर्मन जानना आवश्यक नहीं है । इसी तरह कोई भारतीय नर्तक अगर नृत्य कर रहा है तो पश्चिम का व्यक्ति भी उसे देख कर आनंदित होगा। उसे भारतीय भाषा जानने की आवश्यकता नहीं है। संगीत भी सभी को एक साथ आनंद देता है।
कविता भी एक कला है।
शब्द जब अपने भाषाई सिंहासन से उतरकर काव्य संवेदना का निर्माण करता है, तब वह सभी श्रोताओं को एक सा आनंद देता है। सभी पर एक सी रस – वर्षा करता है। वह ऊंच – नीच, क्रेता – विक्रेता, अमीर- गरीब, हिंदू – मुस्लिम में भेद नहीं करता।
शब्द यहां पर तिरोहित हो जाता है। एक भाव बचा रहता है और श्रोता उस भाव के साथ बहने लगते हैं।
कविता विचार का नहीं, भाव का संप्रेषण है। और रूपांतरण विचार की नहीं भाव की छलांग है।
कविता मनुष्य- मनुष्य के बीच खड़ी की गई इन दीवारों को गिरा कर मनुष्य को मनुष्य की तरह देखने का आग्रह करती है। वह मनुष्य को मनुष्य के करीब लाती है । जोड़ने का काम करती है।
अतः कविता बाजार के लिए बड़ी चुनौती बन जाती है। वह राजनीति के रस्ते का रोड़ा बन जाती है।
बाजार का लाभ इसी में है कि समाज में आर्थिक असमानता रहे, वर्ग भेद रहे। यही राजनीति के हित में भी है। आदमी जितना बंटा रहेगा, उस पर शासन करना उतना ही आसान रहेगा।
अतः बाजार कविता पर अपना शिकंजा कसता है। वह उसके लिए प्रतिकूल वातावरण पैदा करता है।
राजनीति कवि को सरकारी पुरस्कारों, अकादमियों के पदों का लालच दिखाती है। और उसे कविता के सिंहासन से नीचे उतारने का काम करती है।
यहां कविता के लिए भटकाव की स्थिति बनती है। पर ये तात्कालिक प्रभाव है।
सत्य स्थगित हो सकता है, खत्म नहीं। कुछ समय के लिए उस अंगारे पर राख की परत जम सकती है।
किंतु, फिर कभी कोई कबीर आता है। इस धूनी में फूंक मारता है। कविता के अंगारे पर आई तात्कालिकता की राख उड़ती है और ये अंगारा भभक उठता है।
कविता-
बुरे कवि
इसलिए बोलते हैं कि-
कुछ मिल जाए
अच्छे कवि इसलिए बोलते हैं कि-
कुछ बांट सके
बुरे कवि
पाकर भी खाली रह जाते हैं
अच्छे कवि
बाँट कर भी भर जाते हैं
– दिनेश सिंदल