सुधांशु टाक
लेखक, समीक्षक
साल था 1940 । लाहौर की हीरा मंडी में राम लुभाया की पान की दुकान पर एक युवा पहुंचा। वह युवा प्रतिदिन रात्रि को भोजन के पश्चात पान खाने व सिगरेट पीने उसी दुकान पर जाता था। उस दिन भी वह युवा अपने विशेष अंदाज में पान चबाते हुए सिगरेट के धुएं के छल्ले बना रहा था। वह नहीं जानता था कि एक जोड़ी नज़रें उसके इस अंदाज को ध्यान से देख रही हैं और यह उनकी जिंदगी को बदलने वाला है । देखने वाले वह शख्स थे वली महोम्मद , हिंदी फिल्मों के लेखक व निर्देशक। उन्होंने इस बांके नौजवान को देखा और उन्हें अपनी फिल्म “यमला जट्ट” के लिये खलनायक की छवि स्पष्ट दिखाई दी। उन्होंने उस युवा को 50 रुपये महावार की फिल्म में अभिनय की नौकरी का प्रस्ताव दिया, अपना कार्ड दिया और अगले दिन स्टूडियो में आने के लिये कहा। 50 रुपए उस जमाने में बहुत बड़ी रकम हुआ करती थी। अतः उस युवा ने समझा कि यह एक मजाक है। वह नहीं गया। अगले सप्ताह वह युवा एक फिल्म देखने प्लाजा सिनेमा हाल में गया तो वहाँ उन्हें वली महोम्मद मिल गये। उन्होंने युवा को बहुत डांटा कि वह उनका दिन भर इंतजार करते रहे और वह युवा आया नहीं। उन्होंने उस युवा से उसके घर का पता लिया और अगले दिन वह कार लेकर सुबह 9 बजे युवा के घर पहुँच गए और उसको घर से लेकर अपने कार्यालय आ गये। कागज़ी कार्यवाही पूरी की। युवा ने शर्त रखी दी कि जिस दिन उनकी शूटिंग न होगी वह अपना फोटोग्राफी का काम करेंगे जिस पर हामी भर दी गयी। लेकिन वह दिन न आया। इस प्रकार 1940 में युवा की पहली पंजाबी फिल्म “यमला जट्ट” बन कर रिलीज हुई। इसके बाद जो हुआ वो इतिहास बन गया। वह युवा हिंदी फिल्मी इंडस्ट्री के सबसे खतरनाक और दिलदहलाऊ विलन के रूप में सामने आया । उस विलन का नाम था प्राण।
1960 के दशक में जब फिल्म रिलीज होती थी तो पार्श्व में बजते संगीत के साथ ही शुरु होता था फिल्म के नायक, नायिका, सहयोगी कलाकारों के नाम सिने पट पर आने का क्रम, और फिर एक धमाके की ध्वनि के साथ एक बिंदू रूप से अचानक उभर कर एक नाम आता था और “एंड प्राण” या “अबोव आल प्राण!” यह नाम जो किसी भी फिल्म की सफलता की निश्चितता का पर्याय बन गया था इसका इस प्रकार से विशेष उल्लेख होता था । रजतपट पर दशकों तक अपना साम्राज्य कायम करने वाले नायक, खलनायक, चरित्र अभिनेता, हास्य कलाकार जैसे अनेक पात्रों का रजतपट पर सशक्त अभिनय, प्रभावशाली स्वर से युक्त संवाद कला के साथ ही कुछ विशेष हाव भाव व किसी शारीरिक अंग से कुछ विशेष अदा, वेषभूषा द्वारा हर पात्र को सदाबहार व अविस्मरणीय बना देने वाले व्यक्ति को लोग प्राण के नाम से जानने लगे।
“यमला जट” प्राण की पहली फिल्म बनी और सुपरहिट रही। लाहौर फिल्म इंडस्ट्री में एक खलनायक के तौर पर उभरने वाले प्राण को हिंदी फिल्मों में पहला ब्रेक 1942 में फिल्म ‘खानदान’ से मिला। दलसुख पंचोली की इस फिल्म में उनकी एक्ट्रेस नूरजहां थीं। बंटवारे से पहले प्राण ने 22 फिल्मों में नेगेटिव रोल किया। वे उस समय के काफी चर्चित विलेन बन चुके थे। आजादी के बाद उन्होंने लाहौर छोड़ दिया और मुंबई आ गए। यह उनके लिये संघर्ष का समय था।
मुंबई आने के बाद प्राण को फिल्म ‘जिद्दी’ में रोल मिला था। इस फिल्म के लीड रोल में देवआनंद और कामिनी कौशल थे। ‘जिद्दी’ के बाद इस दशक की सभी फिल्मों में प्राण खलनायक के रोल में नजर आए। 1955 में दिलीप कुमार के साथ ‘आजाद’, ‘मधुमती’, ‘देवदास’, ‘दिल दिया दर्द लिया’, ‘राम और श्याम’ और ‘आदमी’ नामक फिल्मों के किरदार महत्वपूर्ण रहे तो देव आनंद के साथ ‘मुनीमजी’ (1955), ‘अमरदीप’ (1958) जैसी फिल्में पसंद की गई।
प्राण को “सदी के खलनायक” की उपाधि से नवाजा गया। प्राण की कुटिल मुस्कान और आंखों से घूरना दर्शकों में खौफ पैदा कर देता था। करीब 3 दशक तक लोगों ने उनके नाम यानी “प्राण” नाम से अपने बच्चों के नाम रखने तक बंद कर दिए थे।उनका तकिया कलाम “बरखुरदार…..” हिंदी सिनेमा में आज भी उनकी याद दिला देता है।
प्राण को तीन बार फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का पुरस्कार मिला। 1997 में उन्हें फिल्मफेयर लाइफ टाइम अचीवमेंट खिताब से नवाजा गया। प्राण को हिन्दी सिनेमा में उनके योगदान के लिए 2001 में भारत सरकार के पद्म भूषण और इसी साल दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड से सम्मानित किया गया था। प्राण ने तकरीबन 350 से अधिक फिल्मों में काम किया। कांपते पैरों की वजह से उन्होंने 1997 से लेकर अपने निधन तक जीवन व्हील चेयर पर गुजरा था ।
1967 में जब मनोज कुमार ने उन्हें फिल्म “उपकार” में मलंग चाचा का चरित्र अभिनेता का रोल दिया तो प्रारम्भ में प्राण साहब भी घबरा रहे थे। फिर इस फिल्म में उन पर फिल्माया गया इंदीवर द्वारा रचित एक गीत भी था “कस्में वादे प्यार वफा सब, वादे हैं वादों का क्या”। इस फिल्म और गीत ने प्राण को परंपरागत विलन की इमेज से बाहर निकालकर बतौर चरित्र अभिनेता स्थापित कर दिया। इस गीत का भी रोचक किस्सा है। फिल्म के संगीतकार कल्याण जी आनंद जी थे। पर यह संगीतकार जोड़ी इस खूबसूरत गीत को प्राण साहब पर फिल्माने के विरुद्द थे। उनका विचार था कि प्राण साहब जो उस वक्त सबसे अधिक प्रसिद्द खलनायक थे उन पर यह गीत फिल्माने से यह गीत ही फ्लॉप हो जायेगा। इधर गायक किशोर कुमार को जब पता चला कि यह गीत प्राण साहब पर फिल्माया जायेगा तो उन्होंने कहा कि इससे मेरा कैरियर ही चौपट हो जायेगा। पर अभिनेता निर्माता निर्देशक मनोज कुमार अड़े रहे । किशोर दा ने मना किया तो मनोज कुमार ने यह गीत मन्नाडे जी से गवा दिया। मनोज कुमार का यह कदम एकदम सही साबित हुआ। मन्ना डे ने भी यह गीत क्या खूब गाया। यह गीत सुपर डुपर हिट रहा । फिल्म की सफलता में इसका भी बहुत योगदान रहा । आज भी यह गीत संगीत प्रेमियों को बहुत पसंद आता है और आज भी यह कानों में गूंजता है।
प्राण ने 12 जुलाई 2013 को मुम्बई के लीलावती अस्पताल में अन्तिम सांस ली। गौर करने वाली बात यह रही कि उनके जन्म और निधन की तारीख एक रही. . प्राण का जन्म 12 फरवरी 1920 को पुरानी दिल्ली के बल्लीमारां के बेहद प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। उनका पूरा नाम प्राण कृष्ण सिकंद था। तो अभी 12 फरवरी को उनकी जयंती भी होगी और पुण्यतिथि भी .”राजस्थान टुडे” परिवार की ओर से उनकी पुनीत आत्मा को विनम्र श्रद्धांजलि . शत शत नमन.