आज महावीर जयंती है। सोशल मीडिया पर शुभकामनाओं का मेला लगा है, जैसे आस्था की असली परीक्षा ‘लाइक’ और ‘शेयर’ की गिनती से हो। स्टेटस बदला, फोटो डाली, नवकार मंत्र की दो पंक्तियाँ कॉपी-पेस्ट कीं — और कर्तव्य पूर्ण! लगता है जैसे महावीर स्वामी अब व्हाट्सएप स्टोरी में ही निर्वाण पा लें।
प्रधानमंत्री ने किया धर्म की महत्ता का जिक्र
प्रधानमंत्री मोदी ने जब नवकार मंत्र दिवस पर जैन धर्म की महत्ता का ज़िक्र किया, तो विदेशों से लौटती चोरी हुई प्रतिमाओं का प्रसंग भी सामने आया। वाकई यह अद्भुत विडंबना है — एक ओर तीर्थंकरों की मूर्तियां देश लौट रही हैं, दूसरी ओर देश के संग्रहालयों में पड़ी वही प्रतिमाएं धूल फांक रही हैं, मानो कह रही हों, “हम तो अपने ही देश में परदेसी हो गए!”
जयपुर की अल्बर्ट हॉल को ही लीजिए— वहां की दर्शनीय दीर्घा में जैन तीर्थंकरों की प्राचीन प्रतिमाएं कांच के पीछे कैद हैं, जैसे कोई सौंदर्य प्रतियोगिता हारकर दंड पा रही हों। इन प्रतिमाओं की आंखों में शांति नहीं, प्रतीक्षा है — शायद किसी ऐसे दर्शनकर्ता की जो इन्हें केवल ‘आर्टिफैक्ट’ नहीं, जीवित इतिहास माने।
क्या ये संग्रहालयी बंदिशें उस जैन दर्शन के अनुरूप हैं जो आत्मा की स्वतंत्रता और कर्म के बंधनों से मुक्ति की बात करता है? विडंबना देखिए, तीर्थंकर की प्रतिमा स्वयं कर्मबद्ध हो गई है — सरकार की फाइलों, पुरातत्व विभाग की अनदेखी और समाज की सुविधाजनक स्मृति में।
मूक समाधि की भाषा समझनी होगी
यह महावीर जयंती केवल पोस्टर और पोस्ट की नहीं, प्रतिमाओं की पुकार सुनने की है। पुरातत्व विभाग, राज्य सरकार, केंद्र सरकार — सभी को इस मूक समाधि की भाषा समझनी चाहिए। महावीर की मूर्तियाँ केवल धातु और पत्थर नहीं, हमारी विरासत की सजीव चेतना हैं। इनका स्थान बंद दीर्घाओं में नहीं, जीवंत शोध और श्रद्धा के खुले आकाश में होना चाहिए।
वरना वह दिन दूर नहीं जब अगली पीढ़ी गूगल इमेज सर्च पर पूछेगी — “Who was Mahavir?” और उत्तर में एक संग्रहालय की तस्वीर मिलेगी — “Currently unavailable.”