-सुरेश व्यास
चुनाव दिल्ली विधानसभा का है और नजरें पूरे देश की लगी है। लाजिमी है देश की राजधानी में सरकार बनने का सवाल है तो नजरें लगेगी ही। वैसे भी दिल्ली के हर चुनाव पर देश की नजर रहती है, चाहे चुनाव जेनयू छात्र संघ के हो या फिर एमसीडी यानी म्यूनिसीपल कॉरपोरेशन दिल्ली के। लोग दरअसल, दिल्ली के चुनावों से राष्ट्रीय दलों का दूध और पानी नापते रहे हैं, भले ही इसका असर राष्ट्रीय राजनीति पर पड़े या नहीं पड़े। फिजां तो इस बार भी ऐसी ही बनी है।
चुनाव आयोग की ओर से दिल्ली विधानसभा सीटों की 70 सीटों के लिए तारीखों का ऐलान होने से पहले ही दिल्ली की राजनीति भरी सर्दी और कोहरे में भी इतनी गर्मा गई कि इस बार के चुनाव राष्ट्रीय नेताओं की अस्मिता के चुनाव के रूप में नजर आने लगे हैं। इसके संकेत तो पिछले 27 साल से दिल्ली की सत्ता के लिए तरह रही भाजपा के नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह तक आम आदमी पार्टी यानी आप को आप-दा पुकार कर दे चुके हैं। कांग्रेस इन चुनावों में इंडिया गठबंधन की ताकत को ताक में रखकर पिछले तीन चुनावों से अंगज के पांव की तरह डटी अरविंद केजरीवाल की पार्टी को टक्कर देने के लिए मैदान में है। दिल्ली चुनाव को लेकर ही पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुला की पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस, उद्धव ठाकरे की शिवसेना, लालू यादव की पार्टी के वारिश तेजस्वी यादव सरीखे नेता इंडिया गठबंधन की प्रासंगिकता को लेकर सवाल उठा चुके हैं। वहीं केंद्र में सत्ताधारी एनडीए के सहयोगी रामदास अठावले की पार्टी अपने दम पर आप और भाजपा के सामने खम ठोक रही है।
ऐसे में देखा जाए तो गुजरात चुनाव में मत प्रतिशत और पंजाब में सरकार बनाने के बाद राष्ट्रीय दल के रूप में उभरी आम आदमी पार्टी के सामने हर कोई खम ठोक रहा है यानी केजरीवाल की आप एक तरफ और बाकी दल दूसरी तरफ। ये हकीकत भी है। इस बार दिल्ली के चुनाव आप बनाम अन्य है। चुनाव की घोषणा के बाद तो ये साफ हो गया कि ये चुनाव केजरीवाल के इर्द गिर्द ही घूम रहा है। आप का मुकाबला है भाजपा या कांग्रेस से। कांग्रेस भले ही मजबूत स्थिति में नहीं हो, लेकिन भाजपा ने दिल्ली के चुनाव को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और वह इस अकेली विधानसभा का चुनाव देश के आम चुनाव की तरह लड़ने को आतुर है। यही वजह है कि भाजपा ने ओपनिंग बेट्समैन के रूप में ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उतार दिया। उन्होंने आप की सरकार को दिल्ली के लिए आप-दा कह डाला तो शीशमहल के बहाने दिल्ली की आप सरकार को भ्रष्टाचार के मामले में घेरने की कोशिश कर ली। इसके बाद अमित शाह, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा और अनुराग ठाकुर ने शराब घोटाले के बहाने भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया तो भाजपा के बाकी नेता पूर्वांचल के मतदाताओं के सहारे नैय्या पार लगाने की कोशिश में हैं, क्योंकि दिल्ली के मतदाताओं का 42 फीसदी इसी के नामे लिखा है।
दरअसल, भाजपा दिल्ली की सत्ता में वापस लौटने के लिए पिछले 27 साल से इंतजार कर रही है। हालांकि इस दौरान उसका मत प्रतिशत लगातार बढ़ा है, लेकिन सीटें दहाई की संख्या तक भी नहीं पहुंच पाई। मदनलाल खुराना, साहिब सिहं वर्मा और सुषमा स्वराज के बाद दिल्ली का कोई नेता न तो शीला दीक्षित और न ही बाद में अरविंद केजरीवाल को चुनौती दे पाया। भले ही भाजपा पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सातों सीटें जीता, लेकिन दिल्ली विधानसभा में कमल खिलाना उसके लिए अब भी दिवास्वप्न ही है। शायद यही वजह है कि भाजपा ने चुनावों के ऐलान से पहले ही आक्रामकता को अपना लिया है। वरिष्ठ पत्रकार केपी मल्लिक कहते हैं कि देश में फिर एक बार मोदी सरकार का सपना साकार करने के बाद भाजपा को लगता है कि दिल्ली नहीं जीती तो क्या जीता। इस वजह से ही उसने पहले तो पीएम मोदी से प्रचार अभियान की शुरुआत करवाई और बाद में भ्रष्टाचार के बहाने राष्ट्रीय मुद्दा अपनाने की कोशिश की। केजरीवाल के मुख्यमंत्री रहते सरकारी आवास में करवाए गए खर्चे को लेकर शीशमहल के बहाने आम आदमी पार्टी को घेरने की कोशिश की गई तो आम आदमी पार्टी ने खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सरकारी आवास पर हुए खर्चों के बहाने राजमहल का मुद्दा सामने ला दिया। पूर्वाचंल के मतदाताओं को लुभाने के लिए भाजपा सम्मान के नाम पर छठ पूजा का मुद्दा ले आई, लेकिन उसे लगता है कि राष्ट्रीय मुद्दों के बहाने नैय्या पार नहीं लगनी और देश की जनता भी रेवड़ी के प्रसाद से ही राजी रहती है तो अब उसने महिला सहायता और 300 यूनिट फ्री बिजली पर फोकस करना शुरू किया है। यानी वह सत्ता हासिल करने के लिए कुछ भी करेगा, वाली रणनीति पर आ गई है।
दूसरी ओर कांग्रेस भी केजरीवाल को ही घेर रही है। कमान पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के पुत्र संदीप और पूर्व केंद्रीय मंत्री अजय मकान ने सम्भाल रखी है, लेकिन उन्हें भी केजरीवाल से मुकाबले का कोई समीकरण समझ नहीं आ रहा। हालांकि कांग्रेस ने राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की तरह गारंटियों का कार्ड खेला है, लेकिन इसका असर मतदाताओं पर नजर नहीं आ रहा। दिक्कत यह है कि कांग्रेस कोई नेरेटिव खड़ा कर पाने में कामयाब होती नहीं दिख रही। फिर हरियाणा और महाराष्ट्र में मिली पराजय भी कांग्रेस अभी तक नहीं भुला पाई है। अब भी उसके नेताओं में आत्मविश्वास नजर नहीं आता। दिल्ली की राजनीति पर गहरी नजर रखने वाले पत्रकार बाबुल वी. राज कहते हैं कि कांग्रेस केजरीवाल को नुकसान तो पहुंचा सकती है, लेकिन खुद का भला करने की स्थिति में नहीं है। कांग्रेस दलितों और अल्पसंख्यकों के सहारे आम आदमी पार्टी के वोट जरूर काट सकती है, लेकिन इसका फायदा उसकी बजाय भाजपा को ही ज्यादा होने के आसार नजर आते हैं। इससे केजरीवाल की सत्ता जाती है तो कांग्रेस इससे भले ही खुश हो जाए कि उसने केजरीवाल को तो नहीं आने दिया। इन चुनावों में कांग्रेस को इससे ज्यादा कुछ ज्यादा मिलता नहीं दिखता। यानी कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं है।
अब आम आदमी पार्टी की बात करें तो उसके नाम एक कीर्तिमान है। आन्दोलन से उपजी आम आदमी पार्टी सम्भवतः देश की एक मात्र पार्टी है, जिसने महज एक दशक में वह राष्ट्रीय राजनीतिक दल पा लिया। दिल्ली व पंजाब सहित दो राज्यों में सरकार बना ली। बाकी राज्यों में उपस्थिति दर्ज करवा चुकी। पीएम मोदी के गृह राज्य में सर्वाधिक वोट हासिल कर दूसरे नम्बर की पार्टी बन गई। दिल्ली में शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में हुए काम और पैठ की बदौलत अब वह चौथी बार दिल्ली की सत्ता में आने के लिए लड़ रही है। राजनीतिक विश्लेषक प्रकाश कुमार की राय में हालांकि केजरीवाल को सत्ताविरोधी लहर का डर है, लेकिन किए हुए काम का आत्मविश्वास ही माना जाना चाहिए कि आप भाजपा की कट्टरविरोधी पार्टी के रूप में उभरी है। अब भी उसका मुकाबला भाजपा से ही है। कांग्रेस भले ही चुनावों को त्रिकोणात्मक बनाने की कोशिश करे, लेकिन अभी की स्थिति तो केजरीवाल बनाम भाजपा ही नजर आती है।
आम लोग भी मानते हैं कि मॉडल स्कूल, मौहल्ला क्लिनिक, महिलाओं के लिए फ्री बस सेवा और मुफ्त बिजली पानी जैसी सुविधाओं ने दिल्ली के लोगों को बहुत राहत पहुंचाई है। हालांकि भाजपा ने केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, सुभाष जैन जैसे नेताओं को गिरफ्तार कर भ्रष्टाचार का नैरेटिव बनाया, लेकिन लोग इसे कम तवज्जो देते हैं। फिर भी इससे आप की छवि पर असर तो पड़ा ही है।
अब सवाल यह है कि चुनाव में कौन कितने पानी में। इस बात में कोई दो राय नहीं कि भाजपा ने दिल्ली के चुनाव को अपनी मूंछ का सवाल बना रखा है, तभी तो उसने पीएम मोदी को आगे कर प्रचार अभियान की शुरुआत की। कांग्रेस भी हवा में हाथ पैर पार रही है। शीला दीक्षित और उनके कामों को याद किया जा रहा है, मगर गाड़ी पीछे ही है। केजरीवाल के पास गिनाने को काम है और विक्टिम कार्ड भी कि कैसे भाजपा ने शराब घोटाले के नाम पर उन्हें और उनकी सरकार को घेरने की कोशिश की। नेताओं को जेल में डाला, लेकिन फूटी कौड़ी भी कहीं से नहीं मिली। यानी करेप्शन का भाजपा का नैरेटिव तोड़ने के लिए केजरीवाल के पास भले ही बहुत कुछ है, लेकिन इस बार वे भाजपा के चक्रव्यू में आ फंसे है, शायद खुद केजरीवाल भी इसे मान ही रहे होंगे। नामांकन शुरू हो चुके हैं। मतदान 5 फरवरी को होगा। नतीजे 8 फरवरी को आएंगे। तभी पता चलेगा, कौन कितना पानी में।
आप का इतिहास
अन्ना हजारे के आंदोलन से निकली आम आदमी पार्टी साल 2013 में पहली बार चुनावी राजनीति में उतरी और दिल्ली विधानसभा के अपने पहले ही चुनाव में 28 सीटें जीतकर सभी को चौंका दिया। हालांकि इस चुनाव में भाजपा 31 सीटों के साथ सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी, लेकिन कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी को समर्थन दे दिया और राजस्व सेवा की नौकरी से राजनीति में आए अरविंद केजरीवाल पहली बार मुख्यमंत्री बने। उनकी सरकार भले ही महज 49 दिन चली और फरवरी 2014 में केजरीवाल ने संख्या बल की कमी का हवाला देकर यह कहते हुए कुर्सी छोड़ दी कि वे लोकपाल बिल पास करवाने में नाकाम रहे हैं। इसलिए चुनाव के बाद पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में लौटेंगे। इसके बाद केजरीवाल और उनकी पार्टी ने दिल्ली की राजनीति में अंगद की तरह ऐसा पैर जमाया कि पिछले दो चुनावों में भाजपा और कांग्रेस केजरीवाल के आसपास भी नहीं दिखी। भाजपा तो 70 सीटों वाली विधानसभा में दहाई की संख्या तक नहीं पहुंच पाई और कांग्रेस एक सीट को भी तरस रही है।
कुल विधानसभा सीटें—-70
दलीय स्थिति—–2020—–2015—-2013
आप—–67———-62——–28
भाजपा—-08——–03———31
कांग्रेस—-00——–00———08
चुनाव कार्यक्रम
नामांकन—-10 से 17 जनवरी
नाम वापसी—20 जनवरी
मतदान—–5 फरवरी
मतगणना—-8 फरवरी
कुल मतदाता—-1 करोड़ 55 लाख 24 हजार 858
पुरुष—-83 लाख 49 हजार
महिला—71 लाख 73 हजार
मतदान केंद्र—-13033