— दिनेश जोशी
स्वतंत्र पत्रकार, लेखक
मेहरबान… कद्रदान… फूलदान… पीकदान… सॉरी, अपने देश की राजधानी दिल्ली यानी ‘इन्द्रप्रस्थ’ के विधानसभा चुनावों का माहौल इन दिनों ‘पीक’ पर है, इसलिए कुछ ऐसा—वैसा स्वत:स्फूूूूूूूूूूूूूूूर्त लिख जाता है। चुनाव की भी भली कही, शादी का मंडप सज चुका हो जैसे… हर पार्टी बाराती बनकर अपनी-अपनी बैंड बजाने में जुटी हो जैसे… और जनता इनकी बारात की दुल्हन हो जैसे…। बेचारी जनता को बार-बार यह सोचने पर मजबूर किया जाता है कि आखिर उसे इस बार किसके साथ फेरे लेने चाहिए।
हर बार की तरह पार्टियों की चुनावी घोषणाएं इस बार भी किसी फिल्मी ट्रेलर से कम नहीं हैं। “फ्री बिजली, फ्री पानी, और साथ में फ्री वाई-फाई भी!” लगता है जैसे नेताजी ने दिल्ली को सिम कार्ड में बदल दिया हो – हर सुविधा मुफ्त! जनता सोचती है, “वाह! ऐसे ऑफर तो अमेज़न पर भी नहीं मिलते।” वोटर की कोहनी पर लगा मुफ्तखोरी का गुड़ उसे भले ही विवेकहीन बना दे, मगर स्साला चाहिए सबकुुछ मुफ्त। इस चक्कर में बिजली कंपनियां भले ही दिवालिया हो जाए मगर पब्लिक को इतना मुफ्तखोर बना दो कि उसके हाड़ ही हिलने से मना कर दे।
चुनावी पूर्वजों ने आरक्षण को जीत की वैतरणी माना था, लेकिन आधुनिक राजनेताओं ने मुफ्तखोरी की नब्ज़ पकड़ ली है। इन्द्रासन अब चाहे जिसका हो, लेकिन हम तो नेताओं और नेताणियों के जीवन—मरण जैसा माहौल देखकर ही गद्गद् हैं। राजधानी की सड़कें पोस्टरों से अटी हैं तो हर गली-मोहल्ले में लगे नेताजी के बड़े-बड़े कटआउट मनुुुुुुुुुुुुुुुुुुुष्य का अपना विराट रूप दिखाने का असफल प्रयास लगता है। कोई हाथ जोड़े दिखता है, तो कोई खीसें निपोरते हुए जनता का दिल जीतने की कोशिश करता है। लेकिन कुछ भी कहिए, असली मज़ा रैलियों में आता है। नेता जी कहते हैं, “हमने दिल्ली को लंदन बना दिया है।” और जनता, जो रोज़ ट्रैफिक में फंसी होती है, सोचती है, “लंदन तो पता नहीं, पर ट्रैफिक ने दिल्ली को बेंगलुरु जरूर बना दिया है।”
एक और मजेदार नज़ारा उम्मीदवारों की दावेदारी का है। सभी दलों को जिताउ, टिकाउ लेकिन बिकाउ न हो ऐसा दावेदार चाहिए। पर पिछले दो दशकों से लगता है ऐसे दावेदारों का भारी अकाल पड़ा हुआ है। अब तो किसी पार्टी से टिकट कट गया तो तुरंत दूसरी पार्टी में शामिल। इन पार्टियों की एक टीम तो पुष्पगुच्छ लिए ही खड़ी रहती है कि ‘आजा मेरी गाड़ी में बैठ जा…।’ ऐसा लगता है जैसे पार्टियों के बीच कोई ‘हॉरिजॉन्टल प्लेसमेंट’ का कनटेस्ट चल रहा हो।
चुनाव के दिन, जनता बेचारी कसमसाती है। बूथ तक जाते हुए मन में सवाल होता है, “इस बार किसे चुनें?” चुनाव बाद के दिन और भी मजेदार होंगे। हारने वाला कहेगा, “ईवीएम में गड़बड़ी हुई है।” जीतने वाला कहेगा, “जनता ने हमें अपना आशीर्वाद दिया है।”
जनता भी यही सोचती है कि यह नाटक तो हर पांच साल में खेला जाना है। फिर भी, उम्मीदों के साथ, हर बार नया नेता चुन लेती है, मानो किसी जादू की छड़ी से सबकुछ बदल जाएगा। लेकिन हकीकत यही है – चुनाव खत्म, और सबकुछ वापस वैसे का वैसा! यानी खेल खतम, पैसा हजम…।
ट्रम्प की आग या ट्रम्प से आग?
अमेरिका के जंगलों में आग लगना अब कोई खबर नहीं, बल्कि एक वार्षिक परंपरा बन गई है। हर साल वहां जंगलों में आग लगती है और पूरी दुनिया के अखबारों में सुर्खियां बन जाती है। लगता है, जैसे जंगल खुद सोच रहे हों, “अरे भाई, हम भी ट्रेंड में आना चाहते हैं!”
वैसे देखा जाए तो यह आग सिर्फ एक प्राकृतिक घटना नहीं, बल्कि आधुनिक मानवता की “चेतावनी” है। वैज्ञानिक बताते हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग और पर्यावरणीय असंतुलन इसके मुख्य कारण हैं। लेकिन कोई नेता इस विषय पर गंभीरता से बात करे, ऐसा कैसे हो सकता है। नये राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने यह सोचते हु्ए कि आग को आग ही रोक सकती है, सजायाफ्ता कैदियों को आग बुझाने के काम में झोंक दिया है। उन्हें उनकी सजा में रियायत देने का लालच दिया गया है।
कुछ वीडियो में देखा है कि हेलीकॉप्टरों से पानी गिराया जा रहा है। लेकिन पानी इतना कम है कि लगता है हेलीकॉप्टर जंगल के साथ “होली” खेल रहा हो। आग कहती है, “वाह, क्या प्रयास है! थोड़ा और जोर लगाओ।”
सोशल मीडिया पर पर्यावरण प्रेमियों की भी यकायक बाढ़ आ गई है। हर कोई ग्रीन डीपी लगाकर दिखा रहा है कि वह पृथ्वी का सबसे बड़ा शुभचिंतक है। लेकिन, जब बिजली का एसी ऑन करके यह पोस्ट लिखी जाती है, तो ग्लोबल वॉर्मिंग भी सोचती है, “क्या मजाक है यार!”
सबसे मजेदार पहलू यह है कि जब दुनिया में कहीं भी कोई घटना होती है, तो भारत के ट्विटर यूजर्स तुरंत इसका “मेमे” बनाकर वायरल कर देते हैं। कोई कहता है, “अमेरिका के जंगलों की आग हमारे मोहल्ले के कचरे की आग से भी ज्यादा खराब है!” अब बताओ ये कितने दिलजले होंगे?