इस मामले को लेकर गठित जेपीसी की पहली बैठक 8 जनवरी को संपन्न हो गई जिसमें प्रत्येक सदस्य को 18000 पन्नों की रिपोर्ट दी गई है, जिसे पढ़कर वे आगे सवाल जवाब करेंगे ।
दिनेश रामावत
वरिष्ठ पत्रकार
वन नेशन वन इलेक्शन का नारा सुनने में बहुत अच्छा लगता है। लेकिन जितना सरल बोलने में उतना ही दुभर है इसका क्रियान्वयन। मोदी सरकार ने संसद में इस बिल को स्वीकार कर जेपीसी को सौंप दिया है। जेपीसी के अध्यक्ष सांसद पीपी चौधरी कह चुके हैं कि 2019 में जब नई संसद का चुनाव होगा तब राष्ट्रपति अगली सांसदी यानी 2034 में संसद के चुनाव और विधानसभा के चुनाव साथ करवाने के लिए कैलेंडर जारी करेंगे। यानी करीब 9 साल का समय इस व्यवस्था को लागू करने में लगेगा। अब अगर 2029 में भी नरेंद्र मोदी प्रधान मंत्री बनें या भाजपा की सरकार लगातार चौथी बार बनी तो यह सम्भव होगा, यानी साफ शब्दों में कहा जाए तो यह बहुत दूर कौड़ी है। अभी हम 2025 में आए हैं, 2034 गंगा में बहुत सा पानी बह जाएगा। अचरज इस बात का है कि भाजपा ने जब इसका राग 2014 में छेड़ा था तो बिल 2024 में क्यों लाई ? भाजपा की पहली दो सरकारें संसद में ज्यादा मजबूत थी। शायद इसका सही और सटीक जवाब समय के चलती राजनीति से सामने आएगा। लेकिन इतना तय है कि इसे लागू करवाने के लिए भाजपा को अपने सहयोगियों को भी मनाना पड़ेगा जो इतना आसान नहीं है। इसके लिए संसद में संविधान संशोधन करवाने होंगे। विपक्ष पहले ही इस कानून के विरोध में है और 240 सदस्यों के साथ सत्ता में मौजूद भाजपा के लिए अपने सहयोगियों को भी इसके लिए राजी करना आसान नहीं है।
इस बीच संसद की संयुक्त समिति की बैठक 8 जनवरी को पी पी चौधरी की अध्यक्षता में हो गई। पी पी चौधरी ने बैठक के बाद कहा था कि 39 सदस्यों में से 37 सदस्य की मौजूदगी बताती है कि सभी सदस्य इस विषय को लेकर गंभीर हैं। उन्होंने अपने अपने सवाल भी किए। हमें उम्मीद है कि सब मिलकर इस पर काम करेंगे। इस पहली बैठक में प्रत्येक सदस्य को कोविद कमेटी की 18 हजार पन्नों की रिपोर्ट सौंपी गई। बैठक में एक साथ चुनाव करवाने से खर्चा बचने की बात पर विपक्षी सांसदों द्वारा पूछा गया कि इसके लिए कितनी ईवीएम की जरूरत पड़ेगी ? बचत कितनी होगी ? इस मुद्दे को कांग्रेस सांसद और समिति की सदस्य प्रियंका गांधी वडेरा पहले भी उठा चुकी है। बैठक में दिए गए दस्तावेजों का समिति के सदस्य अध्ययन करेंगे और उसके बाद अगली बैठकें आयोजित होगी।
यहां यह बात भी दिगर है कि वन नेशन वन इलेक्शन की चर्चाओं के बीच देश में जम्मू कश्मीर, हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव भी एक साथ नहीं हुए थे। इसको लेकर विपक्ष ने सरकार को निशाने पर लिया था। अब लोकसभा के 27 और राज्य सभा के 12 सांसदों के साथ गठित ज्वाइंट पार्लियामेंट्री कमेटी इस बिल पर चर्चा करने के लिए बनाई है। जिसके अध्यक्ष पाली सांसद पी पी चौधरी है, उन्होंने इस पर मंथन शुरू किया है।
हालांकि पी पी चौधरी अध्यक्ष बनने के बाद कह चुके है कि इस बिल को लागू करवाने के लिए वे इससे जुड़े सभी हितधारकों से बात करेंगे। लेकिन उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती जेपीसी ही है जिसमें विपक्ष के नेता शामिल है और उनको इसके लिए राजी करना होगा। यह होने पर ही आगे बात बनेगी। बिल को लोकसभा और राज्यसभा में पास करवाना होगा। कोविंद कमेटी सिफारिशों में भारत में ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ को लागू करने के लिए दो बड़े संविधान संशोधन करने होंगे। इसके तहत संविधान के अनुच्छेद 83 और 172 में संशोधन करना पड़ेगा।
इसके बाद फिर राज्यों का रुख होगा।
बहरहाल पी पी चौधरी वन नेशन वन इलेक्शन के फायदे जरूर गिनाने लगे हैं। वह कहते हैं कि इससे चुनाव का खर्चा बचेगा, बार-बार आचार संहिता नहीं लगेगी, विकास के कार्य नहीं रुकेंगे। इतना ही नहीं वे कोविंद कमेटी की सिफारिश के अनुसार लोकसभा विधानसभा के एक साथ चुनाव के बाद पूरे देश में अगले 100 दिनों में स्थानीय निकाय के चुनाव अभी एक साथ करवाने के लिए भी मेकैनिज्म बनाने की बात कर रहे हैं।
अगर 2029 तक सांसद में यह बिल पारित होता है तो संसद के चुनाव के बाद राष्ट्रपति अगले चुनाव के लिए जो कलैंडर जारी करेंगे उससे उन्हें कई राज्यों के विधानसभा कार्यकाल में बदलाव करना पड़ेगा। 2034 के लोकसभा चुनाव व विधानसभा चुनाव एक साथ करवाने के लिए उत्तर प्रदेश, गोवा, मणिपुर, पंजाब के राज्यों की विधानसभाओं का कार्यकाल 3 से 5 महीने घटना पड़ेगा। जबकि गुजरात, कर्नाटक, हिमाचल, मेघालय, नगालैंड, जैसे राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल 13 माह से ज्यादा कम करना पड़ेगा। इसके लिए तब की राजनीतिक परिस्थितियां भी बेहद मत्वपूर्ण होगी। मसलन खास तौर से क्या भाजपा अगले दस साल तक केंद्र में रहेगी? उसके सहयोगी दल क्या अपेक्षा रखेंगे? अगर भाजपा की सरकार 2029 में नहीं आई तो क्या होगा? इसका जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं हैं। लेकिन इतना तय है कि देश में पहले आम चुनाव जहां सिर्फ 10 करोड़ रुपए में हो गए थे । सेंटर फॉर मीडिया के अध्ययन के मुताबिक 2024 के आम चुनाव में, पिछले चुनाव की तुलना में लगभग दोगुना यानी, 1,00,000 करोड़ से अधिक रुपये खर्च हुए हैं। यह भारत में महंगे होते चुनाव को दर्शाता है।